प्राचीनकाल में जब किसी युवक-युवती का विवाह होता था, तो मां-बाप अपने पुत्र और पुत्री को जीवन यापन के लिए अनाज, कपड़े, गाय-बैल आदि उपहार देकर के रूप में दिया करते थे। इससे नई बसी गृहस्थी में मदद मिलती थी। नई बसी गृहस्थी को मदद देना स्वैच्छिक हुआ करता था। इसके लिए जरूरी नहीं था कि कुछ दिया ही जाए। लेकिन जैसा कि हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बेटे-बेटी सुख से रहें, तो वह खुशी से उपहार दिया करते थे। बाद में यही प्रथा रूढ़ होकर दहेज के रूप में सामने आई। प्राचीन काल में युवक और युवती दोनों के माता पिता स्वैच्छिक रूप से मदद करते थे, लेकिन दहेज में यह जिम्मेदारी लड़की के माता-पिता के कंधे पर डाल दी गई। एक बार की बात है। महामना मदन मोहन मालवीय जब बनारस में हिंदू विश्वविद्यालय का निर्माण करवा रहे थे, तो बनारस का एक सेठ अपनी पुत्री के विवाह का निमंत्रण लेकर उनके पास पहुंचा। मालवीय जी को पता था कि सेठ अपनी पुत्री का विवाह उनके एक शिष्य से करवा रहा है और उस विवाह में काफी पैसा खर्च करने वाला है। मालवीय जी ने उस सेठ से कहा कि मैंने सुना है कि आप इस विवाह में काफी रुपया खर्च करने वाले हैं। यदि आप दहेज के रूप में खर्च करने वाली रकम मुझे दे दें, तो मैं विश्वविद्यालय में कुछ कमरे बनवा लूंगा। वैसे भी मैं आपके होने वाले दामाद का गुरु हूं, तो मैं गुरु दक्षिणा में दहेज के रूप में खर्च होने वाली रकम मांगता हूं। उनकी बात का सेठ पर बहुत असर पड़ा। उसने अपनी पुत्री का न केवल सादगी से विवाह कराया, बल्कि दहेज में खर्च होने वाली रकम मालवीय जी को दे दी। इतना ही नहीं, उसने अन्य कई कमरों का निर्माण भी कराया।
अशोक मिश्र