बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
हमारे धर्मग्रंथों में दान की बहुत महिमा गाई गई है। कहा जाता है कि दान का संबंध पुण्य से है। दान देने से पुण्य की प्राप्ति होती है जिससे मनुष्य का जीवन तर जाता है। दान दुनिया के हर देश में दिया जाता रहा है, उसका रूप भले ही कुछ दूसरा हो। वैसे सच तो यह है कि किसी हट्टे-कट्टे इंसान को दान देने से बेहतर है कि किसी अपाहिज और बूढ़े की सहायता की जाए। दान के संबंध में एक बड़ी मनोरंजक और ज्ञानप्रद कथा है। कहते हैं कि एक राजा बहुत धर्म परायण था। वह अपनी प्रजा का बहुत ख्याल रखता था। वह अपने राज्य में न्यूनतम कर वसूलता था। प्रजा को जितनी सहायता दी जा सकती है, वह उपलब्ध कराता था। राजा जब थोड़ा अधेड़ हुआ, तो उसने प्रजा को दान देना शुरू किया। उसने दान मांगने आने वालों को दान देने के लिए दो अधिकारी नियुक्त किए और कहा कि कोई भी खाली हाथ नहीं जाए। नतीजा यह हुआ कि एक अच्छी खासी भीड़ उसके राजमहल के बाहर जुटने लगी। एक दिन उस मार्ग से एक साधु जा रहा था। उसने जब यह हाल देखा, तो वह भी दान लेने वाले लोगों की लाइन में बैठ गया। जब उसका नंबर आया, तो उसने कहा कि वह सिर्फराजा के हाथ से ही दान ग्रहण करेगा। यह सुनकर राजा अचंभित हुआ। उसने उस साधु को अपने राजमहल में बुलाया। साधु ने कहा कि मुझे वह पैसा चाहिए जो मुझे स्वर्ग पहुंचा सके। राजा ने कहा कि कोई पैसे से स्वर्ग थोड़ी पहुंच सकता है। तब साधु ने कहा कि आप भी तो लोगों को दान देकर स्वर्ग जाने की इच्छा पाले हुए हैं। आपने इन लोगों को दान देकर कामचोर बना दिया है। यदि आप देना ही चाहते हैं, तो इन्हें काम दीजिए। इनके रोजगार की व्यवस्था की कीजिए। यह सुनकर राजा को बात समझ में आ गई। उसने उसी समय से दान देना बंद दिया। लोगों को रोजगार देने का प्रबंध करने लगा।
राजन! दान नहीं, रोजगार दीजिए
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