अशोक मिश्र
दुनिया में ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों का दुर्गुण ही खोजते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि सारे लोग ऐसा करते हैं, लेकिन दूसरों में कमी या दोष खोजने वालों की संख्या कम नहीं है। दरअसल, यह एक मानवीय गुण है। हर व्यक्ति अपने दुर्गुण छिपाकर रखना चाहता है और दूसरों के दुर्गुण जानना चाहता है। भले ही वह दूसरों के दुर्गुण जानकर उसका प्रचार न करे। लेकिन जीवन में कुछ ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जो दूसरों के दुर्गुण का सिर्फ प्रचार ही करते हैं। इस संदर्भ में एक कथा है। एक जगह एक संत रहते थे। उम्र काफी हो गई थी। वह लोगों को सच्चा और सरल जीवन जीने का उपदेश दिया करते थे। एक दिन उनके पास एक युवक आया और बोला कि वह उनका शिष्य बनना चाहता है। संत ने सोचा कि अब उनकी उम्र हो गई है। यदि युवक को उन्होंने शिष्य बना लिया, तो वह उनका सहारा बनेगा। यही सोचकर संत ने हामी भर दी। लेकिन कुछ ही दिनों में युवक उस दिनचर्या से ऊब गया। एक दिन उसने कहा कि गुरु जी, मुझे कोई चमत्कार करना सिखाइए। संत ने कहा कि जीवन में चमत्कारों का कोई महत्व नहीं होता है। लेकिन शिष्य अपनी जिद पर अड़ा रहा। मजबूर होकर संत ने अपने झोले से एक शीशा निकाला और शिष्य को देते हुए कहा कि यह चमत्कारी शीशा है। जिसके सामने यह होगा, उसके दोष इसमें प्रकट हो जाएगा। बस, फिर क्या था? उसने लोगों के दोष पता करके उनको प्रचारित करना शुरू कर दिया। जब उसके कुकृत्य की सूचना संत को मिली, तो एक दिन उन्होंने कहा कि एक बार शीशा तुम अपनी ओर करके देखो। शिष्य ने अपनी ओर शीशा किया, तो पाया कि वह तो दुर्गुणों की खान है। शिष्य शर्मिंदा हुआ और उसने संत से क्षमा मांगी और शीशा संत को लौटा दिया।
बोधिवृक्ष : संत बोले, पहले अपने दुर्गुण तो देखो
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