बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
सुख और दुख जीवन के दो पहलू हैं। ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि किसी व्यक्ति के जीवन में सुख ही सुख हों या जीवन भर दुख ही दुख रहा हो। सुख के दिन चाहे जितने लंबे हों, एक न एक दिन बीत ही जाते हैं। यही हाल दुख का है। दुख की घड़ियां व्यक्ति को भारी लगती हैं। ऐसा लगता है कि दुख में समय ही नहीं बीत रहा है। लेकिन सुख मानो फुर्र से उड़ गया। यदि जीवन भर सुखी रहना है, तो इन दोनों परिस्थितियों में समान रहना होगा। सुख तो कागज से भी हलका होता है, लेकिन मामूली दुख भी पहाड़ जैसा लगता है। यदि दुख को जितनी जल्दी भुला दिया जाए, उतनी जल्दी जीवन सुखमय लगने लगता है। एक कथा है। एक संत के पास एक व्यक्ति आया और उसने पूछा, ऋषिवर! आप हमेशा इतने सुखी कैसे रहते हैं। मुझे भी इसका राज बताएं ताकि मैं भी सुखी रह सकूं। संत ने उस व्यक्ति से कहा कि मैं इसका राज अभी थोड़ी देर में बताऊंगा। मैं किसी काम से जंगल जा रहा हूं, तुम भी चलो। वह व्यक्ति मान गया। कुछ दूर चलने पर संत ने एक पत्थर उठाया और उस व्यक्ति को दे दिया। वह व्यक्ति उस पत्थर को लेकर कुछ दूर चला, तो उसका हाथ थोड़ा-थोड़ा दर्द करने लगा। और आगे चलने पर उसके हाथ का दर्द बढ़ गया, लेकिन वह कुछ नहीं बोला। काफी दूर चलने के बाद उसके हाथ का दर्द असहनीय हो गया, तो यह बात उसने संत को बताई। संत ने कहा कि पत्थर नीचे रख दो। पत्थर नीचे रखते ही थोड़ी राहत महसूस हुई। संत ने कहा कि सुखी जीवन का यही राज है। जब तक हम दुखों को इस पत्थर की तरह अपने दिलोदिमाग में लादे रखते हैं, तब तक यह हमें दुख देता रहता है। जब हम दुखों को भुलाकर आगे बढ़ जाते हैं, तो जीवन सुखी हो जाता है।
संत ने बताया सुखी होने का राज
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