सुमन शर्मा
विद्यालय में आकर यदि कोई बालक असफल होना सीख रहा है या उसमें हार जाने का भाव बढ़ रहा है तो यह समस्त शिक्षा विभाग एवं उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों के चिंतन, व्यवहार एवं क्रिया प्रणालियों पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह हैं। प्रबुद्ध अध्यापकों का ध्यान विद्यालय में दिव्यांग विद्यार्थियों (विशेष रूप से बौद्धिक दिव्यांगता से प्रभावित) की जांच एवं मूल्यांकन पद्धतियों की ओर देना चाहिए। दिव्यांगता अधिकार अधिनियम के संदर्भ में दिव्यांग बालक-बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला है। उन्हें शिक्षा से वंचित नहीं किया जा सकता है। इसके लिए सरकार और असंख्य गैर सरकारी संगठनों के द्वारा विद्यालयों में प्रयासपूर्वक अपने वित्तीय संसाधनों, समय एवं ऊर्जा का वृहद स्तर पर निवेश भी किया गया। नि:संदेह इससे हमारे दिव्यांग वर्ग के बालक-बालिकाओं को अत्यधिक लाभ भी मिला। इससे दिव्यांग विद्यार्थियों को अपना जीवन संवारने और जीवन का संघर्ष भी कम हुआ। उन्हें अनिवार्य सुविधाएँ मिलनी भी आरंभ हुई हैं। हालाँकि इस क्षेत्र में बहुत काम किया जाना अभी शेष हैं।
दिव्यांग विद्यार्थी स्कूलों में प्रवेश लेने के बाद, पूरा वर्ष शिक्षा के वातावरण में शिक्षकों और साथियों के साथ बिताने के बाद जब परीक्षा भवन में प्रवेश करते हैं, तब उनके सामने एक बार फिर वही संघर्ष खड़ा हो जाता है जो विद्यालय में प्रवेश के समय उन्होंने महसूस किया था। परीक्षा से पूर्व उनके लिए एक विशेष अध्यापक, विशेष शिक्षण सहायक सामग्री, विशेष शिक्षण विधि का प्रयोग करने वाला विद्यालय परीक्षा भवन में उनकी स्थिति और विशेष आवश्यकताओं को दरकिनार करते हुए उन्हें वहां प्रश्नपत्र थमा देता हैं जो उसके साथियों के पास होता है। जिसमें उसे उत्तीर्ण होने के लिए न्यूनतम अंक हासिल करने होते हैं। अपनी बौद्धिक अक्षमता के चलते ये दिव्यांग बालक परीक्षा में न्यूनतम अंक नाम की इस नदी को पार नहीं कर पाते और असफल हो जाते हैं। वह प्राकृतिक रूप से तो पहले ही पिछड़े हुए होते हैं, शिक्षा व्यवस्था उन्हें और पिछाड़ देती है। विद्यालय में विशेष अध्यापक और दिव्यांग बालक दोनों इस परिदृश्य में असहाय दिखाई देते हैं। वे चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं।
‘नो डिटेंशन पालिसी’ के हट जाने से यह समस्या बहुत गंभीर रूप में हम सबके सामने है जिसके लिए तत्काल उचित योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने की जरूरत है। विद्यालय के दिव्यांग विद्यार्थियों की आवश्यकता, प्रशिक्षण और क्षमताओं के अनुसार ही उनकी जांच एवं मूल्यांकन प्रक्रिया बननी होनी चाहिए। दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए जांच एवं मूल्यांकन प्रक्रिया का निर्माण करने में विद्यालय में इन दिव्यांग विद्यार्थियों के साथ काम करने वाले अध्यापकों की सहभागिता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। तभी दिव्यांग बच्चों की वास्तविक समस्याओं का पता चलेगा और ऐसा होने पर विद्यार्थी और अध्यापक अनावश्यक दबाव में नहीं आएंगे। वे अपने को स्वतंत्र महसूस करेंगे।
वर्तमान अध्ययनों में अनगिनत केस ऐसे आए हैं जहाँ जांच एवं मूल्यांकन प्रणाली ने विद्यार्थियों को कक्षा में असफल घोषित कर दिया है, जबकि वास्तव में विद्यालय के अध्यापकों और इन बालकों के निरंतर प्रयास से इनके जीवन में बेहतरीन बदलाव आए हैं। इससे उनका जीवन सहज एवं सुगम बना है। बच्चों के जीवन में आए बदलाव अभिभावकों, अध्यापकों और विद्यालय को भी सकारात्मक अहसास कराते हैं। उनके जीवन में बहुत कुछ अच्छा होने की आशा जगाते हैं। दूसरी ओर कक्षा का वार्षिक परिणाम नकारात्मकता फैलाता है। दिव्यांग विद्यार्थी, अभिभावक, शिक्षक और अप्रत्यक्ष रूप से समाज के बीच एक द्वंद्वात्मक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। शिक्षा जो सबको रोशनी और स्पष्टता देती है, वह दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए द्वंद्व का कारण कैसे हो सकती है? ऐसी स्थिति में सबको मिलकर इस दिशा में कोई सार्थक पहल करनी होगी। जांच एवं मूल्यांकन प्रणालियों के ऐसे नव स्वरूप का विकास करना होगा जिससे सभी दिव्यांग बच्चे स्वयं को जान सकें और आगे बढ़ सकें।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
कुछ अलग होनी चाहिए दिव्यांग बच्चों की परीक्षा प्रणाली
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