संजय मग्गू
अब कोई नहीं लिखता चिट्ठी। कोई गाता भी नहीं कि आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की, तब देखना। क्योंकि अब चिट्ठियां लिखी ही नहीं जातीं। मुझे किसी की चिट्ठी यानी पत्र मिले, एक जमाना हो गया। न किसी की चिट्ठी आई, न मैंने किसी को लिखी। तीन दशक पहले तक चिट्ठियां दूर बसे प्रियजनों, रिश्तेदारों, मित्रों का हाल-चाल जानने का सशक्त माध्यम हुआ करती थीं। पंद्रह पैसे का पोस्टकार्ड, 25 पैसे का अंतर्देशीय और चालीस या पचास पैसे का लिफाफा पोस्ट बाक्स में डालते समय एक अजीब किस्म का सुकून मिलता था। जवाबी चिट्ठी का इंतजार…उफ! तौबा..तौबा। इतनी बेसब्री तो प्रेमिका या प्रेमी के इंतजार में भी नहीं महसूस होती थी। डाकिये को देखते ही दिल धुकधुक करने लगता था। पता नहीं जवाबी पत्र लाया होगा या नहीं। पत्र मिलते ही एक सुकून आत्मा के भीतर बड़ी गहराई पैठ जाता था। बेसब्री पता नहीं कहां गायब हो जाती थी। तब ज्यादातर आबादी पढ़ी-लिखी नहीं होती थी, महिलाएं तो खासकर। डाकिया ही चिट्ठी पढ़ भी देता था और लिख भी। गांवों में जाने वाले डाकिये तो अपने झोले में पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय और लिफाफे लेकर चलते थे। महिलाओं को तो डाकखाने जाने की झंझट से भी फुरसत मिल जाती थी। चिट्ठी का मोल दे देने पर डाकिया काका, मामा, भइया पत्र लिख भी देते थे। पत्र लिखना भी एक कला है। नौसिखिए दस बार चिट्ठी लिखते थे और फाड़ते थे, फिर भी परिपक्व चिट्ठी नहीं लिख पाते थे। महिलाओं की चिट्ठी लिखते समय कुछ डाकिये अपनी तरफ से कुछ न कुछ जोड़ देते थे क्योंकि उन्हें अपने मन की बात बताते हुए शर्म जो आती थी। डाकिये की अनुभवी निगाहें उनका मर्म समझकर खुद ही लिख देता था। प्रेम पत्र लिखना तो और भी मुश्किल था। तरह-तरह की इश्किया शायरी खोजनी पड़ती थी। लच्छेदार भाषा और इश्किया शेर से जब तक प्रेम पत्र सजा न हो, तब तक मजा ही नहीं आता था। जब तक प्रेमिका दस बार पढ़ने के बाद लजाए, शरमाए और मुस्कुराए न, तो प्रेम पत्र लिखने का मजा ही नहीं है। फिर अपने अजीज तक चिट्ठी पहुंचाना भी बड़ा जोखिम का काम था। पत्र कहीं गलत हाथों में पड़ गया, तो जूते में दाल बंटनी तय है। आज की पीढ़ी के लोगों ने शायद ही चिट्ठी कभी लिखी हो। कुछ दिनों बाद तो पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय और लिफाफे अतीत की वस्तु हो जाएंगे। नया जमाना है। नए जमाने की अभिव्यक्ति के कई माध्यम हैं। ह्वाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, टेलिफोन जैसे माध्यमों ने चिट्ठी लिखने की जरूरत ही खत्म कर दी। इधर प्रेम हुआ, उधर ह्वाट्सएप, फेसबुक, मैसेंजर या फोन पर ही पर तीन शब्दों का प्रेम पत्र हाजिर। अब तो कुछ प्रेमी 143 लिखकर ही काम चला लेते हैं। इन तीन शब्दों या अंकों में भावनाएं बांझ सरीखी होती हैं। प्रेम में गहराई नहीं दिखती है। उदात्त प्रेम का प्रकटयन नहीं होता है। एक ठूंठे पेड़ की तरह होता है प्रेम पत्र। ऐसा प्रेम पत्र सच्चे प्रेम की आश्वस्ति भी नहीं प्रदान करता है।
संजय मग्गू