संजय मग्गू
अभी कल ही हमने वसंत की पंचमी मनाई है। ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा की है। एकदम मशीनी अंदाज में रोबोट की तरह। मन में न उल्लास है, न मन तरंगित है। न कहीं विरहिन ने वायु को, फूलों को सताने का उलाहना दिया। कामायनी के जयशंकर प्रसाद की तरह न परिचय पूछा गया कि कौन हो तुम बसंत के दूत, विरस पतझड़ में अति सुकुमार। संपूर्ण संसार में प्रेम का प्रसार करने वाले कामदेव और रति के पुत्र वसंत जब आते हैं, तो मन मयूर सा नृत्यातुर हो जाता है। हृदय में उमंगें हिलोर मारने लगती हैं। प्रेमीजन प्रफुल्लित हो उठते हैं। संयोगीजन उछाह से भर जाते हैं। वसंत का बाहें पसारकर स्वागत करते हैं। पूस की हाड़ कंपाती ठंडक के दिन बीत चुके हैं। सूरज में भी थोड़ी-थोड़ी तपन आ चुकने की वजह से शरीर में आई जड़ता अब दूर होने लगी है। ऐसी स्थिति में मन बावला सा हो रहा है। असल में वसंत का संबंध मन से है। मन विचलित हो, तो वसंत कब आया और कब चला गया, पता ही नहीं चलता है। पतझड़ के बाद आने वाला वसंत इस बात की तस्दीक करता है कि इस प्रकृति में कुछ भी स्थायी नहीं है। यह संपूर्ण जगत परिवर्तनशील है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। जो कल आएगा, वह भी नहीं रहेगा। यह संपूर्ण प्रकृति भी आज है, कल नहीं रहेगी। वसंत भी आज है, कुछ दिनों बाद नहीं रहेगा। जीवन इसी तरह चलता रहेगा। सुख-दुख के बीच ही हमें कुछ पल अपने लिए चुराने हैं। प्रफुल्लित होने हैं, अपनी समस्याओं को दरकिनार कर अपनी प्रेयसि या प्रिय को अपने आलिंगन में लेकर वसंत का स्वागत करना है। प्रकृति भी तो यही कर रही है। चराचर जगत में जर्जर का परित्याग कर नए के स्वागत में प्रकृति पुष्पहार पहनकर खड़ी है। हे जीवन में राग पैदा करने वाले वसंत! आओ तुम्हारा स्वागत है। आओ और जीवन को नए सिरे से पल्लवित-पुष्पित करो। बागों, कुंजों में कोयल भी कूक-कूक कर वसंत का स्वागत गान गा रही है। यह कोयल का केलिकाल है। वह अपने प्रिय को ‘कुहू-कुहू’ की मधुर ध्वनि में आवाज दे रही है कि आओ, जीवन के वसंतकाल में हम कुछ नया करें। वसंत सबको लुभाता है। कहते हैं कि जब कामदेव भगवान शंकर की तपस्या भंग करने के अपराध में भस्मीभूत कर दिए गए, तो अशरीरी होकर भी वह अपने पुत्र वसंत के माध्यम से संपूर्ण संसार में काम भावना जगाने का दायित्व निर्वहन करते हैं। लेकिन जिनका प्रिय साथ नहीं है, उस विरहिन के लिए यह वसंत किसी बैरी से कम भी नहीं है। बागों में खिला गुलाब भी दहकते अंगार जैसा प्रतीत होता है। थोड़ी ठंडी, थोड़ी गर्म हवा भी उसे छेड़ती हुई प्रतीत होती है। इन हवाओं में बिखरे उसके केश भी किसी नाग की तरह प्रतीत होते हैं, जो उसके शरीर में मादक गरल का संचार कर रहे हैं। उसके हृदय में संयोगी जनों को देख-देखकर ईर्ष्या का संचार हो रहा है। चंदन का लेप भी उसे झुलसा रहा है, लेकिन वह यह कहना नहीं भूलती है कि कामदेव और रति के पुत्र वसंत! आओ तुम्हारा स्वागत है।
कामदेव और रति के पुत्र वसंत! आओ तुम्हारा स्वागत है
- Advertisement -
- Advertisement -
RELATED ARTICLES