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महिलाएं भी पुरुषों की तरह प्राणी हैं, कोई रोबोट नहीं

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संजय मग्गू
इन्फोसिस के को-फाउंडर नारायण मूर्ति का पिछले साल दिया गया एक बयान फिर से चर्चा में है। पिछले साल 2023 में नारायण मूर्ति ने देश के युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी। इस पर कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने महिलाओं के संदर्भ में असहमति जताई है। गौरव गोगोई की बात से महिलाएं जरूर सहमत होंगी। भारतीय समाज में महिलाओं की क्या दशा-दिशा है, इससे या तो नारायण मूर्ति परिचित नहीं हैं या फिर वह जान बूझकर इसकी अनदेखी कर रहे हैं। सप्ताह के सातों दिन दस घंटे काम करना, यकीनन श्रम साध्य है। आखिर एक आदमी लगातार कितने दिन सातों दिन दस घंटे काम कर सकता है, जबकि इसमें फायदा सिर्फ पूंजीपतियों का है। मूर्ति खुद पूंजीपति हैं और उनके कार्यालयों में यदि ऐसा होता है, तो इसका सीधा फायदा उन्हीं को है, इसलिए वे ऐसी अपील कर सकते हैं राष्ट्र के विकास की चाशनी में डुबोकर। भारतीय महिलाओं के लिए लगातार दस घंटे काम करना किसी भी तरह संभव नहीं दिखाई देता है। नारायण मूर्ति शायद महिलाओं के घरेलू कार्यों का शायद काम नहीं मानते हैं। हमारे देश की जो सामाजिक संरचना है, उसको ध्यान में रखते हुए कहा जाए, तो पूरे देश में महिलाएं जितना काम करती हैं, उतना पुरुष कभी नहीं कर सकता है। कामकाजी महिलाएं तो और भी ज्यादा काम करती हैं। चूंकि महिलाओं को घरेलू काम के लिए वेतन नहीं मिलता है, ऐसी स्थिति में इन्फोसिस के संस्थापक मूर्ति महिलाओं के काम को काम मानने से इनकार कर सकते हैं, लेकिन यदि उनको इन कार्यों के लिए वेतन मिलता, तो आठ घंटे कार्यालयों, कारखानों और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों से ज्यादा वेतन घरेलू काम करने वाली महिलाओं को मिलता। महिलाएं सुबह उठने से लेकर रात सोने तक काम ही काम करती हैं जिसका कोई मोल उन्हें नहीं मिलता है। बच्चों, पति, सास-ससुर, नाबालिग देवर-ननद के नाश्ते के इंतजाम करने और उन्हें नाश्ता खिलाने से उनका काम शुरू होता है। उसके बाद अनवरत काम ही काम होता है। झाड़ू, पोछा, खाना बनाना, कपड़े धोना से लेकर बाजार से खरीदारी करने तक और रात में फिर खाना बनाने तक की जिम्मेदारी महिलाएं ही संभालती हैं। उस पर पति के भी नखरे झेलने हैं। उसके बावजूद उनकी स्थिति क्या है भारतीय समाज में, यह किसी से छिपा नहीं है। मूर्ति जी, पुरुष हैं। उनके घर में कामकाज के लिए तमाम नौकर-चाकर होंगे, उनके घर की महिलाएं भले ही घरेलू काम न करती हों, लेकिन एक सामान्य घर की महिला इतने काम निपटाने के बाद अपने कार्य स्थल पर दस घंटे की नौकरी कैसे कर सकती है, वह भी सप्ताह के सातों दिन। महिलाएं भी पुरुषों की तरह जीवित प्राणी हैं, कोई रोबोट नहीं। वह जीवन संगिनी हैं कोई गुलाम नहीं। उनमें भी यह लालसा होती है कि सप्ताह में एक दिन ही सही, घरेलू कामकाज से उन्हें अवकाश मिल जाता, ताकि वे भी आराम कर सकें। लेकिन अफसोस उन्हें यह सुख शायद जीवन भर मयस्सर नहीं होता है।

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