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Editorial: कहीं यों ही न खत्म हों बालपन की निशानियां

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देश राेजाना: मनुष्य प्रत्येक कार्य किसी न किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए करता है। सृजन-कर्म न तो प्रयोजन रहित होता है और न हो सकता है। भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा में आरंभ से ही सृजन कर्म की महिमा का गुणगान तथा उसके प्रयोजनों पर विचार किया जाता रहा है। कला अतृप्तियों की पूर्ति का प्रयास है। और भावों व विचारों का परिष्कार इसका प्रयोजन। बीते कुछ महीनों ने माटी और माटी से जुड़े कलाकारों की अहमियत को बढ़ाया है। उपभोक्तावादी समाज में सायास उनका कद ऊंचा हो गया है और लोकल से वोकल की इतियात्रा में अचानक वे मुखरित हो उठे हैं। बीते दशकों में कलावादी मूल्यों और उसकी चमत्कृत शाक्ति को हम भूला बैठे थे। लोकमंगल और लोक संस्कृति को जीवित रखने के प्रयोजन से किए जाने वाले इस कार्य को निकृष्ट और दोयम दर्जे का माना जाने लगा था। कालक्रम में क्रूर उपभोक्तावाद की निर्ममता ने माटी के इस कारोबार को दम तोड़ने पर मजबूर कर दिया। संस्कृति की थाती को माटी के जरिये पीढ़ियों तक पहुंचाने का स्वप्न धूमिल हो गया।


बचपन में मिट्टी के घरौंदों में सजाए जाने वाले रंग-बिरंगे चाक, जाँता, तस्तरियां, तुला और मनमोहक मिट्टी के चुक्के (उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में प्रचलित खिलौने) आज भी स्मृतियों के दरवाजे पर दस्तक देते हंै। गेरुए रंग में रंगे उन लुभावने खिलौनों को देख मन यकबयक उत्साह और रोमांच से भर उठता है। जतन से गुल्लक में सहेजे गये चवन्नियों के बदले बड़े मोल-भाव के साथ उन्हें खरीदा जाता। उन दिनों कुम्हारिन काकियों की आवक अचानक बढ़ जाया करती। बच्चे उनकी मनुहार करते नहीं थकते। दीवाली आने तक पूरे मनोयोग से उन खिलौनों की साज-संभाल की जाती।
फिर दीवाली वाली रात उन्हें फरही, मिश्री, लड्डु आदि से भरा जाता। त्योहार बीतने के बाद उन्हें खेलने के काम लाया जाता।

बच्चों की वो अल्हड़, अलमस्त दुनिया वाकई आल्हादित करने वाली थी। सुघड़ हाथों से तराशे गये उन खिलौनों में तृप्ति का भाव तो था ही, लोकानुभूति भी थी। तब मिट्टी से बने खिलौनों का एक भरा-पूरा बाजार था। दूर-दूर तक उनकी मांग थी और धाक थी। साथ में चार पैसे कमाने का जरिया भी। दुर्भाग्य से समय के साथ माटी की उस सोंधी गंध को कंक्रीट के बक्से में बंद कर दिया गया। वक्त का पहिया घूमा और विकासवाद की घोर उपभोक्तावादी संस्कृति ने सब लील लिया। विदेशी और चीनी खिलौनों का आयात बढ़ा। कुम्हारिन काकियां, बियाँबां में कहीं खो गईं। मिट्टी के कुल्हड़ों को प्लास्टिक के डिस्पोजबल और दीवाली के चुक्कों को चीन से आयातित रोबोटिक खिलौनों से बदल दिया गया। ये परिवर्तन हठात नहीं था। बदलाव के इस सफर ने एक लंबी यात्रा तय की थी। हालांकि खिलौना संस्कृति को तब महात्मा गांधी का बड़ा सहयोग मिला था।


उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं का व्यवहार करने का आग्रह किया था। पर उनका ये आग्रह भी मिट्टी के कलाकारों को सम्पूर्ण न्याय नहीं दिला पाया। पर हाल के दिनों में स्थितियां बदली हैं। काल चक्र ने एक बार फिर माटी के कलाकारों को जीवंतता के साथ उठ खड़े होने का माद्दा दिया है। अब इस क्षेत्र में रोजगार के नए सिरे खंगालने की कवायद भी तेज हो गयी है। दशकों से हाशिए पर रहे मिट्टी से सने हाथ नये प्रतिमान गढ़ने को आतुर हैं। इसकी पहल देश के कई इलाकों में हो चुकी है। कई युवा खिलौनों के संसार में अपना भविष्य तलाश रहे हंै। जाहिर है कि यह बदलाव की एक बड़ी कड़ी है। जिससे भविष्य में रोजगार की राह आसान होगी। उनमें इसे लेकर स्टार्टअप की सुगबुगाहट भी दिखने लगी है।जो अच्छे संकेत हैं।कई सामाजिक संस्थाएं न केवल आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी महिलाओं को मुफ्त में प्रशिक्षण दे रही है बल्कि उनके बनाये खिलौनों को बाजार में खपाने में भी मदद कर रही है। (यह लेखक के निजी विचार हैं।)

– डॉ. दर्शनी प्रिय

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