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खैरी पंचायत की शादियों में डीजे और मृत्यु भोज पर रोक सराहनीय

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संजय मग्गू
हिसार के खैरी गांव की पंचायत ने जो फैसला लिया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। रविवार को खैरी गांव में बैठी पंचायत ने फैसला किया कि शादियों में डीजे नहीं बजाया जाएगा। कोई तड़क भड़क नहीं होगी। जितनी साधारण तरीके से शादी हो सकती है, वैसे ही शादी कराई जाएगी। यही नहीं, गांव के किसी भी घर में यदि कोई मौत होती है,तो मृत्यु भोज नहीं दिया जाएगा। सामाजिक रूप से पंचायत का यह फैसला अटपटा लग सकता है। सदियों से चली आ रही मृत्यु भोज की परंपरा को नकार देना, क्या सही है, यह सवाल कुछ लोग उठा सकते हैं। लेकिन यदि मानवीय नजरिये से देखा जाए, तो पंचायत का यह फैसला सराहनीय है। हमारे देश और प्रदेश में लड़कियों की शादी के समय मजबूरी में कई तरह की फिजूलखर्ची होती है। लड़की के मां-बाप या अभिभावक को हजारों-लाखों रुपये सिर्फ सजावट और पंडाल बनाने में खर्च करना पड़ता है। बैंड-बाजा और डीजे पर पैसे खर्च करने पड़ते हैं। यह सब लड़की वालों पर भारी पड़ता है। गरीब परिवारों को तो सामाजिक दबाव में तड़क-भड़क दिखाने के चक्कर में एक मोटी रकम कर्ज लेनी पड़ती है, कई बार मकान, दुकान या खेत तक बेचना पड़ता है। अपनी बहन-बेटी की शादी के चक्कर में लोगों को जो परेशानी उठानी पड़ती है, वह लाडली बिटिया की शादी में लिए गए कर्ज को अदा करने के लिए कई साल तक परेशानी उठाता है। उसकी अपनी आर्थिक स्थिति काफी दयनीय हो जाती है। यही हाल मृत्यु भोज के मामले में होती है। जिस परिवार में मौत होती है, वह परिवार पहले से ही शोकग्रस्त होता है। अपने किसी परिजन की मौत का दुख सबसे बड़ा दुख होता है। ऐसी स्थिति में यदि आर्थिक स्थिति काफी कमजोर है और उसे समाज के दबाव में मृत्यु भोज देना पड़े, तो ऐसी स्थिति उसके लिए दोहरा शोक साबित होता है। प्राचीनकाल में जब मृत्यु भोज की परंपरा शुरू हुई होगी, तो उसके पीछे यह बताना रहा होगा कि अमुक परिवार में अमुक व्यक्ति की मौत हो गई है और उसकी समस्त संपत्ति या लेन-देन के जिम्मेदार अब अमुक अमुक लोग हैं। उन दिनों शायद यह परंपरा रूढ़ नहीं रही होगी। आजकल तो जिनके पास पैसा है, अमीर हैं, वह शादी हो या मृत्यु भोज, लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते हैं। वह लोगों के सामने अपनी अमीरी का प्रदर्शन करते हैं। उनकी देखा-देखी, मध्यम आय वर्ग के लोग भी कई बार मजबूरी में ऐसा करते हैं। यह सब परंपराएं भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही हैं। इनका उद्देश्य भले ही अच्छा रहा हो, लेकिन जब तक यह स्वैच्छिक रहा, किसी को कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन जब सामाजिक रूप से दबाव डालकर उसका पालन अनिवार्य किया गया, अधिसंख्य लोगों के लिए कष्टकारी हो गया।

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