महिलाएं किसी भी देश की हों, सबकी स्थिति कमोबेस एक जैसी है। भारत में भी महिलाओं को वैसे तो संवैधानिक रूप से पुरुषों के बराबर माना गया है। संविधान और कानून में किसी भी महिला के साथ भेदभाव नहीं है, लेकिन व्यवहार में? साफ दिखाई देता है कि समाज में महिलाओं को आज भी कमतर समझा जाता है। अदालत और सरकार ने अब पिता की संपत्ति में बेटियों को भी बराबर का हक दिया है। लेकिन कितनी बेटियों ने अपने पिता की संपत्ति में दावा पेश किया। जरा इस की भी गणना कर लीजिए। अगर इसका पता लगाया जाए तो बमुश्किल तीन-चार प्रतिशत ही ऐसे मामले सामने आएंगे। और जिसने अपने पिता की संपत्ति में दावा किया है, उनके प्रति समाज के रवैये की पड़ताल कर लीजिए। साफ पता चल जाएगा कि वास्तविक हालात क्या हैं? समाज की चंद महिलाओं की बात यदि छोड़ दी जाए, तो नब्बे फीसदी महिलाएं भले ही ससुराल में भूमिहीन हों, आवासहीन हों, गरीबी में जीवनयापन कर रही हों, लेकिन अपने पिता की संपत्ति में दावा पेश करने का साहस नहीं जुटा पाती हैं। सबसे पहले तो यही भय होता है कि पिता नाराज हो जाएंगे, मां नाराज हो जाएगी, भाई-भाभी उससे मुंह फेर लेंगे। यदि उसने इन सब भय से मुक्ति पा ली, तो समाज क्या कहेगा? चार आदमी क्या कहेंगे? यह जो चार आदमी क्या कहेंगे का भय है, यह बेटियों को अपने हक के लिए खड़ी होने से रोक देता है। अब चीन की ही बात लें। चीन के ग्रामीण क्षेत्रों में यदि कोई महिला अपने गांव से बाहर किसी से विवाह करती है, तो उसे उसकी संपत्ति से वंचित कर दिया जाता है। भले ही वह विवाह के बाद अपने मायके में ही रहे, लेकिन उसकी गिनती गांव के लोगों में नहीं होती है। यह वहां पंचायतों का फैसला है। पंचायतों का यह फैसला कोई आज का नहीं है। जिस तरह हमारे देश में यह परंपरा रही है कि विवाह के बाद बेटी अपने ही पिता के घर में मेहमान हो जाती है, उसका अपने मायके में कोई अधिकार नहीं रह जाता है। ठीक वैसी ही परंपरा चीन के ग्रामीण इलाकों में सदियों से चली आ रही है। चीन की महिलाएं अब इसके खिलाफ जागरूक हो रही हैं। वे अदालतों में मामला ले जा रही हैं। संगठित होकर इसके खिलाफ आवाज उठा रही हैं। लेकिन कम्युनिष्ट सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है। यहां तक अदालतें ऐसी अर्जियों पर सुनवाई करने से इनकार कर देता है। हमारे देश में जिस तरह यह भय है कि पिता की संपत्ति में हिस्सा मांगने पर दोनों परिवारों में अशांति पैदा हो जाएगी, ठीक यही भावना चीन के ग्रामीण समाज में है। सामाजिक अशांति के भय से वे महिलाओं का हक मारकर बैठे रहते हैं। आप कल्पना करके देखिए, यदि हमारे देश की सभी बेटियां अपने पिता की संपत्ति से हिस्सा मांग बैठें, तो क्या स्थिति होगी? हालांकि यह भी सच है कि कुछ प्रतिशत को छोड़कर सभी बेटियों को कुछ न कुछ अपने पिता से हासिल ही होगा, जो उनका अपना होगा। जिस पर किसी का हक नहीं होगा।
संजय मग्गू