विनेश फोगाट पेरिस ओलिंपिक से लौट आई हैं। उनका भव्य स्वागत किया गया। कुश्ती में सौ ग्राम वजन अधिक हो जाने से उन्हें कोई मेडल नहीं मिला। उनका वजन क्यों और कैसे बढ़ा, यह जांच का विषय है, लेकिन यह सवाल उठना लाजिमी है कि करोड़ों रुपये फूंकने के बाद हमें पेरिस ओलिंपिक में हासिल क्या हुआ? सिर्फ एक रजत और पांच कांस्य। स्वर्ण पदक एक भी नहीं। ओलिंपिक पदक तालिका में 71वें स्थान पर रहने के बाद भी हमारे देश के लोग और नेताशाही ऐसे खुश हैं मानो पदकों से हमारी झोली भर गई हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक लाल किले से खिलाड़ियों को बधाई दे रहे हैं। खिलाड़ियों को बधाई देना और उनका भव्य स्वागत करना बनता है, लेकिन अब यह भी सोचना पड़ेगा कि 140 करोड़ आबादी वाले देश का ओलिंपिक में इतना खराब प्रदर्शन क्यों? जबकि उजबेकिस्तान ने आठ, केन्या ने चार, दक्षिण कोरिया ने 13 और न्यूजीलैंड ने दस स्वर्ण पदक जीते हैं।
इतने छोटे-छोटे देश के खिलाड़ी अपने देश के लिए पदकों की झड़ी लगा रहे हैं और हम सिर्फ छह पदक जीतकर फूले नहीं समा रहे हैं। आखिर क्यों? ओलिंपिक खेलों में हमारा प्रदर्शन इतना खराब रहता है। इसका सबसे आसान जवाब यही है कि खेल संघों पर उन लोगों का कब्जा जिसका खेल से कोई नाता ही नहीं है। पिछले साल से विवादों में रहे भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह का कुश्ती से रिश्ता था जिसके चलते उन्हें भारतीय कुश्ती महासंघ की जिम्मेदारी प्रदान कर दी गई। चुनाव के बाद भारतीय कुश्ती महासंघ के नए अध्यक्ष संजय सिंह का कुश्ती से क्या नाता है। राज्य स्तर पर जितने भी खेल संघ हैं, उन खेल संघों पर नेताओं का कब्जा है।
शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, तेजस्वी यादव, हेमंत बिस्वा सरमा, अभय चौटाला, पूर्व सांसद विजय कुमार मल्होत्रा जैसे न जाने कितने नाम होंगे, जो विभिन्न खेल संघों पर काबिज रहे हैं या वर्तमान में काबिज हैं। जब तक केंद्रीय या राज्य स्तरीय खेल संघों पर नेता और नौकरशाह काबिज रहेंगे, खेलों की दशा सुधरने की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। हम संसद में भले ही यह गिना दें कि अमुक खिलाड़ी पर इतने रुपये खर्च किए गए हैं, लेकिन उन्हें पदक जीतने लायक माहौल, संसाधन और सुविधाएं उपलब्ध करा पाए हैं, इस पर विचार करना बहुत जरूरी है। चीन जैसे देश में तीन हजार से अधिक खेल संस्थान हैं, हमारे देश में मुश्किल से 150 खेल संस्थान हैं।
इनमें से सिर्फ 26 खेल संस्थान ऐसे हैं जिन पर सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का मालिकाना हक है। जिन देशों ने पेरिस पदक तालिका में सर्वोच्च स्थान हासिल किया है, उन देशों में बच्चे नहीं, खिलाड़ी पैदा किए जाते हैं। तीन-तीन चार-चार साल की उम्र से ही उनका प्रशिक्षण शुरू हो जाता है। नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप रहित वातावरण में वे कठिन प्रशिक्षण और देखरेख में खिलाड़ी बनते हैं। ऐसी व्यवस्था क्या हमारे देश में है?
-संजय मग्गू