हमें जल्दी ही यह तय करना होगा कि हमारी जरूरत क्या है और विलासिता क्या है? स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी, स्वच्छ भोजन, रहने को एक मकान और पहनने को कपड़ा, यही हमारी मौलिक आवश्यकताएं हैं। हवा को हमने पहले पहले ही विषाक्त बना दिया है। जल स्रोतों में विभिन्न स्रोतों से निकला रसायन और पर्यावरण में मौजूद हानिकारक तत्व घुलते जा रहे हैं। भोजन भी हम ज्यादातर रसायनयुक्त कर रहे हैं जिसकी वजह से कई तरह की बीमारियां हमें उपहार में मिल रही हैं। बाकी बचा मकान और कपड़ा। मकान कच्ची मिट्टी का भी हो सकता है, खपरैल भी हो सकता है, छप्पर वाला हो सकता है और सीमेंट से बना आलीशान मकान भी हो सकता है।
हमारा काम मिट्टी के कच्चे मकान से चल सकता है, जैसा कि हमारे पूर्वजों के दौर में हुआ करता था, लेकिन अफसोस यह है कि हमने अपनी विलासिता को जरूरत का जामा पहनाकर इसे इस तरह ओढ़ लिया है कि इससे मुक्ति की बात सोचते ही हमारे हाथ पांव फूलने लगते हैं। घर में रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर, वाशिंग मशीन के बिना तो हम जीवन की अब कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। हमने प्राकृतिक संसाधनों को अपनी जरूरत बताकर उन्हें इस तरह अपने में समाहित कर लिया कि उनका वजूद ही खत्म हो गया। हम अब शहरों में घास-फूस और कच्ची मिट्टी का घर बनाते हैं, तो रिसॉर्ट में बनाते हैं। फैशन के तौर पर। प्रकृति के निकट होने का ढोंग रचने के लिए। बढ़ते शहरीकरण ने हमसे उन प्राकृतिक स्रोतों को छीन लिया जो कभी हमारे पर्यावरण की सुरक्षा करते थे।
नतीजा यह हुआ कि पूरी मानवजाति खतरे में है। अपने देश की लगभग 35 प्रतिशत जमीन बेकार हो चुकी है। इनमें से 25 प्रतिशत जमीन बंजर होती जा रही है। धीरे-धीरे यही बंजर जमीन मरुथल में बदल जाएगी। ऐसी जमीन पर घास का एक तिनका तक नहीं उगेगा। और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। झारखंड, गुजरात, गोवा, दिल्ली और राजस्थान जैसे राज्यों में बंजर भूमि बढ़ती जा रही है। कई साल पहले यह खबर भी आई थी कि राजस्थान में रेगिस्तान बढ़ रहा है। दरअसल, जिस जमीन पर कभी हरे भरे वन हुआ करते थे, खेती होती थी, खेतों के किनारे घने वृक्षों की छाया हुआ करती थी, उस जमीन का हमने उपयोग ही बदल दिया।
वहां बड़ी-बड़ी कालोनियां खड़ी कर दी, फैक्ट्रियां खोल दीं, रिसॉर्ट खड़े कर दिए, हाईवे बना दिए। नतीजा यह हुआ कि हमने अपने आसपास के पर्यावरण को रोगी बना दिया। रोगी पर्यावरण ने अब हमें रोगी बनाना शुरू कर दिया है। इस स्थिति से बचने का एक ही तरीका है और वह है हमारे पूर्वजों द्वारा सुझाया गया तरीका। हमें जमीन का उपयोग पहले जैसा करना होगा। सीमेंट का उपयोग हमें न्यूनतम से न्यूनतम करने की कला सीखनी होगी। हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हम प्रकृति के नजदीक रहकर ही जी सकते हैं, उससे दूर रहकर या उसे उजाड़कर कतई जिंदा नहीं रह सकते हैं।
-संजय मग्गू