किसी शायर ने कहा है कि जल से हुए, जलजात हुए, जल के न हुए/वे और किसी के क्या होंगे, जब अपने ही दल के न हुए। यही वजह है कि विश्वासघाती को कोई पसंद नहीं करता है। जिसके साथ विश्वासघात होता है, वह तो नापसंद करता ही है, जिसके लिए विश्वासघात किया गया हो, वह भी नापसंद करने के साथ-साथ विश्वास नहीं करता है। आपको याद होगा कि फरवरी में उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के चुनाव हुए थे। समाजवादी पार्टी के सात विधायकों मनोज पांडेय, पूजा पाल, राकेश पांडेय, विनोद चतुर्वेदी, आशुतोष वर्मा, राकेश प्रताप सिंह और अभय सिंह ने भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में क्रॉस वोटिंग किया था। अब समाजवादी पार्टी इन विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग करने जा रही है। इन सातों विधायकों में से सपा के चीफ ह्विप रहे मनोज पांडेय को रायबरेली में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने का मौका भाजपा ने जरूर दिया, लेकिन बुरी तरह हारने के बाद भाजपा ने पांडेय को भाव देना बंद कर दिया है। अगर मनोज पांडेय चुनाव जीत गए होते, तो भाजपा वाले सिर पर बिठा लेते, लेकिन हारे हुए को कौन महत्व देता है।
यही हाल बाकी छह विधायकों का है। राज्यसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों को जिताने के बाद कुछ दिनों तक तो इन विधायकों को महत्व दिया गया। भाजपा ने सोचा था कि लोकसभा चुनाव के दौरान अपने-अपने क्षेत्र में ये विधायक भाजपा के पक्ष में लहर पैदा करेंगे, भाजपा प्रत्याशियों को अपने समर्थकों का वोट दिलाएंगे, लेकिन परिणाम आशा के अनुरूप नहीं निकला। ये सभी विधायक अपने वोट बैंक को भाजपा के पक्ष में ट्रांसफर करने में सफल नहीं हुए। इसके बाद तो यह सभी भाजपा की नजरों से गिर गए। भाजपा ने भी मनोज पांडेय को छोड़कर किसी को भी टिकट नहीं दिया था। आज इन विधायकों की हालत ‘न खुदा ही मिला, न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे’ जैसी है।
समाजवादी पार्टी से बगावत की, विश्वासघात किया और हाथ में कुछ नहीं आया। अब तो इनकी विधायकी पर भी खतरा मंडराने लगा है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को हुए अभी दो साल ही बीते हैं। तीन साल चुनाव में बाकी है। ऐसी स्थिति में भाजपा इन्हें टिकट देगी भी या नहीं, इस पर भी संदेह है। ऊपर से सपा भी अब इनकी विधानसभा की सदस्यता रद् कराने की मुहिम में लग गई है।
यदि सपा अपने इस अभियान में सफल हो जाती है जिसकी उम्मीद ज्यादा है, तो ये सात विधायक न घर के रहेंगे न घाट के। अब अगर इनकी सदस्यता चली जाती है, तो यह सातों लोग किसी भी सदन के सदस्य नहीं रहेंगे। वैसे भी हमारे देश में विश्वासघातियों को सम्मान देने की परंपरा कभी नहीं रही है। रावण के भेद बताने वाले विभीषण को रामदरबार में भले ही मान-सम्मान मिला हो, लेकिन आम जनता ने कभी सम्मान नहीं दिया। आज भी लोग अपने बेटे का नाम विभीषण नहीं रखते हैं।
-संजय मग्गू