अंग्रेजी भाषा के महान नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ को शुरुआत में काफी संघर्ष करना पड़ा। वह एक अच्छे व्यंग्यकार भी थे। उनका जन्म आयरलैंड के डबलिन में 26 जुलाई 1856 को हुआ था। बाद में वह 1880 में इंग्लैंड चले आए थे जहां उन्हें लेखक और नाटककार के रूप में अपने को स्थापित करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। हालांकि, 1925 में बनार्ड शॉ को साहित्य की सेवा के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समाज सुधारक, नाटककार और साहित्य समीक्षक शॉ पूरे जीवन शाकाहारी रहे। उनका मानना था कि किसी भी जीव को अकारण क्यों कष्ट दिया जाए। यही वजह है कि वे भोजन में उन्हीं पदार्थ को सेवन करते थे जिसमें मांसाहार का उपयोग नहीं किया जाता था।
एक बार वे आयरलैंड के एक प्रसिद्ध रेस्त्रां में गए। उन्होंने रेस्त्रां का मेन्यू कार्ड देखकर वेटर को बुलाया और कहा कि मैं शाकाहारी हूं। मुझे सिर्फ सलाद ला दो, लेकिन सलाद ताजा और हरा होना चाहिए। वेटर ने आर्डर लिखने के बाद पूछा, और कुछ चाहिए। तब शॉ ने मस्ती में जवाब दिया कि हां, मेरे लिए गोभी का एक बड़ा सा पत्ता लाकर दे देना ताकि मैं खरगोश की तरह सोच सकूं।
कुछ समय बाद वेटर ने ताजे सलाद के साथ गोभी का एक बड़ा सा पत्ता लाकर रख दिया। और कहा कि आपकी वजह से आज इस रेस्त्रां में एक नई डिश जुड़ गई है। यह सुनकर बनार्ड शॉ हंस पड़े। वैसे वैचारिक रूप से शॉ तानाशाही को पसंद करते थे। उन्होंने रूस के तानाशाह स्टालिन और जर्मन के तानाशाह हिटलर के बारे में बहुत कुछ प्रशंसात्मक बातें लिखी हैं। हालांकि यह भी सही है कि उनकी इन टिप्पणियों से उनके लेखन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनकी लोकप्रियता साहित्य में वैसे ही बनी रही जैसे पहले थी।
-अशोक मिश्र