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सामाजिकता की पहचान होते हैं रिश्ते, इनको संजोना जरूरी

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आखिर हमें रिश्तों की जरूरत क्यों पड़ती है? रिश्तों का सीधा सा संबंध अपनेपन, संबल और सहयोग से है। यह रिश्ते ही हैं जो हमें जीवन में आगे बढ़ना सिखाते हैं, हमारे भीतर नैतिकता पैदा करते हैं। हमारे भविष्य की दशा और दिशा तय करने में रिश्तों की बहुत बड़ी भूमिका इसलिए होती है क्योंकि हमारे इर्द-गिर्द रहने वाले दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, मामा-मामी से लेकर वे तमाम लोग हमें अपना संबल प्रदान करते हैं। वे हमें सुरक्षा का एहसास दिलाते हैं। हम जब खुश होते हैं, तो यह भी हमारी खुशी में शामिल होते हैं। हम जब दुखी होते हैं, उदास होते हैं तो यह भी दुखी होते हैं, उदास होते हैं। हमारे इर्द-गिर्द जितने भी रिश्ते हैं, वह क्रियात्मक संबंध हैं। हम जिनके साथ रोज उठते-बैठते हैं, खाते-पीते हैं, सोते-जाते हैं, जीवन की अन्यान्य क्रियाएं करते हैं, क्रियात्मक संबंध कहलाते हैं।

हमारे समाज में परिवार का मतलब दादा-दादी से शुरू होकर चचेरे, ममेरे, फुफेरे और मौसेरे भाई-बहनों तक होता था। संयुक्त परिवार एक वृक्ष के आकार का हुआ करता था। इन रिश्तों को पारिभाषित करने के लिए शब्द हुआ करते थे। पिता की बहन बुआ कहलाती है, उसका पति फूफा और उसके बच्चे फुफेरे भाई-बहन कहलाते हैं। बुआ, मामा, मौसी से हमारा सीधा रक्त संबंध हैं, इसलिए इन रिश्तों के नाम हैं, लेकिन बुआ की जेठानी, देवरानी या फूफा की बहन के रिश्तों का कोई नाम नहीं है। कहने को बुआ की जेठानी, देवरानी भी बुआ ही कही गई। ठीक यही हाल मामी की बहन या मौसी की जेठानी और देवरानी का है। इन रिश्तों को नाम भले ही न दिया गया हो, लेकिन आदर, सम्मान अपनी बुआ की ही तरह देना पड़ता था। इसी आधार पर हम अपने इर्द-गिर्द के सारे रिश्तों की व्याख्या कर सकते हैं। लेकिन पश्चिमी समाज में तो सिर्फ अपने ही परिवार तक रिश्ते आज भी होते हैं।

उनके यहां बुआ भी आंटी, मामी भी आंटी, मौसी भी आंटी और चाची भी आंटी होती हैं। उनके संबंध बहुत ज्यादा संकुचित होते हैं। यही वजह है कि दक्षिण एशियाई देशों भारत, नेपाल आदि में पारिवारिक संबंध कुछ ज्यादा ही पुष्ट, मधुर और स्नेहपूर्ण होते हैं। यह एक ऐसी विरासत है जो आज खत्म हो रही है। आज से तीन-चार दशक पहले तक भारतीय समाज में जब भी कोई मांगलिक कार्य होता था, सारे लोग इकट्ठा होकर मनाते थे। बुआ-फूफा आते थे, मामा-मामी, मौसी-मौसा और उनके बच्चे भी आते थे।

सबके इकट्ठा होने पर जो उनमें जुड़ाव होता था, संबंधों में प्रगाढ़ता होती थी, वह जीवन भर कायम रहती थी। संकट के समय सारे लोग मिलकर उसका हल खोजते थे। एक दूसरे को सांत्वना देते थे, लेकिन अब एकल परिवार ने उस सामाजिक विरासत को नष्ट कर दिया है। यही वजह है कि लोगों में हताशा, कुंठा और अवसाद बढ़ रहा है। एकाकी जीवन की समस्याएं पैदा हो रही हैं। यह रिश्तों में आए क्षरण का ही परिणाम है। क्या हम इस ऐतिहासिक-सामाजिक विरासत को संजो नहीं सकते हैं?

-संजय मग्गू

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