आज हमारे देश को आजाद हुए 77 वर्ष हो गए। देश में बड़ी जोर-शोर से आजादी का जश्न मनाया जा रहा है। मनाया भी जाना चाहिए। हमारा देश सैकड़ों साल की ब्रिटिश दासता से मुक्त हुआ था। इसी आजादी को हासिल करने के लिए हमारे देश के हजारों रणबांकुरों ने अपनी शहादत दी थी। फांसी चढ़े। गोलियां खाईं। अंग्रेजों की जेलों में बर्बर यातनाएं सहीं। भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जिसकी स्वाधीनता के लिए चलने वाला संग्राम दुनिया का सबसे लंबी अवधि वाला संग्राम था। इन 77 वर्षों में हमारे देश ने यकीनन बहुत तरक्की की। हम दुनिया की उन चुनिंदा शक्तिशाली देशों की श्रेणी में हैं जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती हैं। विकास के सभी आयामों में हमने कीर्तिमान स्थापित किया है, लेकिन चंद सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब आज नहीं, तो हमारी आने वाली पीढ़ियां जरूर मांगेंगी।
‘गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है’ बार-बार दोहराने वाले क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, बहरी ब्रिटिश हुकूमत की आंख खोलने के लिए संसद में बम फेंकने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त, योगेश चंद्र चटर्जी, केशव प्रसाद शर्मा, त्रिलोक्यनाथ चक्रवर्ती ‘महाराज’, खुदीराम बोस, सुभाषचंद्र बोस जैसे ने जाने कितने क्रांतिकारियों के सपनों का क्या हुआ? क्या उन्होंने इसी भारत के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। सन 1905 में गठित की गई अनुशीलन समिति के क्रांतिवीरों का क्या यही लक्ष्य और उद्देश्य थे? देश के उन हजारों क्रांतिकारियों का सपना क्या आज पूरा हुआ? नहीं, कतई नहीं। क्रांतिकारियों का केवल एक ही सपना था देश को ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से मुक्त कराना।
क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति से जुड़े और देश के सभी क्रांतिकारियों का लक्ष्य था, एक ऐसे समाज की रचना करना जिसमें रहने वाले मनुष्यों में मनुष्यत्व हो। चूंकि इस लक्ष्य को गुलामी में पूरा नहीं किया जा सकता था, इसलिए क्रांतिकारियों ने अपना तात्कालिक लक्ष्य आजादी घोषित किया था। लेकिन अफसोस, देश तो आजाद हो गया, लेकिन क्रांतिकारियों का समता, समानता और भाईचारे का सपना कहीं खो गया।
आज जिस तरह जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा, प्रांत जैसे तमाम मुद्दों पर लोग लड़ रहे हैं या उन्हें लड़ाया जा रहा है, ऐसे भारत की कल्पना कम से कम क्रांतिकारियों ने नहीं की थी। क्रांतिकारियों का सपना एक ऐसे समाज का निर्माण करना था जिसमें किसी के साथ भेदभाव न हो, सबकी समान रूप से जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हों। जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर किसी में भी कटुता न हो। मनुष्यों में मनुष्यत्व विकसित करने का ध्येय लेकर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले शहीदों का लक्ष्य अभी अधूरा है। यह लक्ष्य और उद्देश्य तभी पूरा होगा, जब समाज में इंसान इंसान बनकर रहेगा। इसके लिए जरूरी है कि हम और हमारी भावी पीढ़ी अपने देश के क्रांतिकारियों के लक्ष्यों से परिचित हो, उनकी शहादत के बारे में जाने।
-संजय मग्गू