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एक स्त्री कब निर्भय होकर रात के अंधेरे में घूम सकेगी?

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कोलकाता, अयोध्या, कन्नौज, दिल्ली, मुजफ्फरनगर जैसे तमाम शहरों में स्त्रियों के साथ होने वाली आपराधिक घटनाओं ने भले ही राजनीतिक दलों को एक दूसरे को पटखनी देने का एक मुद्दा दे दिया हो, एक मौका उपलब्ध करा दिया हो, लेकिन स्त्रियों के मन में तो सिर्फ भय का ही संचार किया है। कोलकाता की घटना ने चिकित्सकों को सिर्फ इसलिए उद्वेलित किया क्योंकि जिसके साथ यह घृणित घटना हुई, वह एक ट्रेनी लेडी डॉक्टर थी। लेकिन अगर वह डॉक्टर नहीं होती तो? आखिर हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि वह एक स्त्री थी। स्त्री के साथ हुए अपराध को हमें जाति, धर्म, व्यवसाय के खांचे में क्यों फिट कर देते हैं। अयोध्या में जिस बच्ची के साथ दुराचार हुआ, वह दलित होने से पहले स्त्री है, कन्नौज में जिस बच्ची के साथ छेड़छाड़ हुई या देश के किसी भी कोने में किसी के साथ छेड़छाड़, बलात्कार या बलात्कार के बाद हत्या हुई, वह स्त्री थी। समाज में स्त्रियों की क्या दशा है, यह किसी स्त्री से पूछकर देखिए। वह बताएगी कि उसे हर दिन कितना और किस तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ता है।

पुरुषों को इस बात की पूरी स्वतंत्रता है कि वह रात के अंधेरे में बैठकर तारे निहारें, नदी के किनारे बैठकर दोस्तों के साथ गप्प लड़ाएं, लेकिन एक स्त्री ऐसा करने से पहले लाख बार सोचेगी और फिर शायद मना कर देगी, इस तरह का कोई भी अनुभव हासिल करने से। रात में किसी भी सड़क पर, गलियों में, नदी की कछार के किनारे निर्भय घूम सकती है क्या? रात में छोड़िए दिन में भी उसका अकेले घूमना निरापद नहीं रह गया है। छोटी-छोटी बच्चियां तक सुरक्षित नहीं रही हैं। इसका कारण समाज की संकीर्ण सोच और पुरुषों की मानसिकता है।

बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं के साथ दुष्कर्म करने वाला पुरुष कानून की गिरफ्त में आने के बाद सजा भले ही पाए, लेकिन उसे अपने किए पर पश्चाताप शायद ही किसी बलात्कारी को होता हो। पुलिस की सुरक्षा में अदालत लाते-ले जाते समय जिस तरह वह सीना तानकर चलता है, उससे यही लगता है कि मानो दुष्कर्म करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार रहा हो। ऐसे लोगों को जितनी भी कठोर सजा दी जाए, वह कम ही प्रतीत होती है। बलात्कारी यह कभी नहीं सोच पाता है कि बलात्कार किए जाने पर दुनिया की प्रत्येक स्त्री का शरीर ही घायल नहीं होता है, उसकी स्त्रीत्व का ही अपमान नहीं होता है, बल्कि उसकी आत्मा तक छलनी हो जाती है।

उसकी आत्मा पर बलात्कार का दंश उसे आजीवन प्रताड़ित करता है। उस पर समाज का व्यवहार उसे और तोड़कर रख देता है। आखिर बलात्कार की पीड़ा झेलने के बाद भी समाज का दंश स्त्री ही क्यों झेले? यह सवाल पूरे समाज से पूछा जाना चाहिए। यौन शुचिता की जवाबदेही सिर्फ स्त्री के कंधे पर ही क्यों लादी जाए? यह सवाल जब तक पूरी शिद्दत से नहीं उठाया जाएगा, तब तक शायद स्त्री मुक्ति संभव नहीं है। इसके लिए स्त्रियों के साथ-साथ पुरुषों को भी आगे आना होगा।

-संजय मग्गू

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