दुनिया सुनना नहीं, देखना पसंद करती है कि आप क्या कर सकते हैं और अपने अंदर छिपी इसी असीम शक्ति की पहचान करवाना, मैं कौन हूँ और क्या कुछ कर सकता हूँ, इस भाव को परिणाम में बदलने के लिए प्रेरित करने की प्रेरणा है शिक्षक। आज शिक्षक दिवस है। हममें से कोई भी ऐसा नहीं, जिसके जीवन में इस शब्द का महत्व न हो। हम आज जो कुछ भी हैं या हमने जो कुछ भी सीखा या जाना है, उसके पीछे किसी न किसी का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग व उसे सिखाने की भूमिका रही है। इसलिए आज का दिन प्रत्येक उस व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने व उन सीखे हुए मूल्यों के आधार पर खुशहाल समाज निर्माण में अपनी भूमिका तय करने का दिन भी है।
शिक्षक यानि गुरु शब्द का तो अर्थ ही अंधकार (अज्ञान) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाने वाला है। भारत में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का श्री गणेश भी हो चुका है। पूरी शिक्षा नीति को देखने पर ध्यान आता है कि उसके क्रियान्वयन और सफल तरीके से उसे मूर्त रुप देने का अगर सीधा-सीधा किसी का नैतिक दायित्व बनता है तो वह शिक्षकों का ही है। वर्तमान के आधार को मजबूत करते हुए, भविष्य के आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना को चरितार्थ करने व भारत को आगे बढ़ाने के सपनों को अपनी आँखों में भर कर निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा व भाव जागरण का आधार भी शिक्षक है। जिंदगी में उत्साह व भारत के प्रति उत्तरदायित्व से भरी हुई पीढ़ियों का निरंतर निर्माण करते रहना, यही शिक्षकत्व की पहचान है और यही शिक्षक दिवस की सार्थकता भी।
कहा जाता है कि एक शिक्षक का दिमाग देश में सबसे बेहतर होता है। एक बार सर्वपल्ली राधा कृष्णन के कुछ छात्रों और दोस्तों ने उनका जन्मदिवस मनाने की इच्छा जाहिर कि इसके जवाब में डॉ. राधाकृष्णन ने कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से मनाने की बजाय इसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए तो मुझे बहुत गर्व होगा। इसके बाद से ही पूरे भारत में 5 सितंबर का दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी कारण इस दिन इस महान शिक्षाविद को हम सब याद भी करते हैं।
डॉ. राधाकृष्णन ने 12 साल की उम्र में ही बाइबिल और स्वामी विवेकानंद के दर्शन का अध्ययन कर लिया था। उन्होंने दर्शन शास्त्र से एम.ए. किया और 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक अध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने 40 वर्षों तक शिक्षक के रूप में काम किया। वह 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद 1936 से 1952 तक आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे और 1939 से 1948 तक वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया। साल 1952 में उन्हें भारत का प्रथम उपराष्ट्रपति बनाया गया और भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बनने से पहले 1953 से 1962 तक वह दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसी बीच 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया। डॉ. राधाकृष्णन को ब्रिटिश शासनकाल में सर की उपाधि भी दी गई थी। इसके अलावा 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा विश्व शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। अत: हम कह सकते हंै कि वे जीवनभर अपने आप को शिक्षक मानते रहे और उन्होंने अपना जन्मदिवस भी इसी परिपाटी का पालन करने वाले शिक्षकों के लिए समर्पित कर दिया।
डॉ. राधाकृष्णन अक्सर कहा करते थे, शिक्षा का मतलब सिर्फ जानकारी देना ही नहीं है। जानकारी का अपना महत्व है लेकिन बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का भी महत्व है, क्योंकि इन भावनाओं के साथ छात्र उत्तरदायी नागरिक बनते हैं। वे मानते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होगा, तब तक शिक्षा को मिशन का रूप नहीं मिल पाएगा।
डॉ. पवन सिंह