आश्विन माह का कृष्ण पक्ष पितृ पक्ष कहलाता है। ऐसी मान्यता है कि जो इस पक्ष में पितरों की देहत्याग की तिथि पर उनका श्राद्ध करता है, उस श्राद्ध से पितर तृप्त हो जाते हैं। यह अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर और श्रद्धा भाव का प्रतीक है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। कम से कम इसी बहाने अपने पूर्वजों और पितृओं को याद तो किया जाता है। लेकिन सच्चा श्राद्ध वही है, जब जीते जी मां बाप की सेवा सहायता की जाए।
उनको पूरा मान-सम्मान दिया जाए। जो लोग अपने मां-बाप को जीते-जी मान सम्मान नहीं देते हैं। उनका सुख दुख में ख्याल नहीं रखते हैं, उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ देते हैं उनके (मां बाप) जाने के बाद उनका श्राद्ध मनाना सिर्फ एक ढकोसला है। ऐसे लोग उनकी मृत्यु के बाद समाज को दिखाने के लिए या श्राद्ध न करने पर कहीं पितर श्राप ना दे दें सिर्फ इस डर से उनका श्राद्ध कर्म व तर्पण करते हैं।
जीते जी मां बाप की होती नहीं पूजा, जग की उल्टी रीति रही। मरने पर होती उनकी पूजा, यह कैसी रीति रही? जिस माता पिता ने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, पढ़ना-लिखना सिखाया और उसका पूरा जीवन निर्माण किया उसी माता-पिता को वृद्धावस्था में अपमान जनक जिंदगी जीने को मजबूर किया, यह कैसे उचित हो सकता है?
ऐसा पुत्र अगर बाद में उनका श्राद्ध कर्म करें, तो वह आडंबर, दिखावा व ढोंग ही है। आज की स्वार्थ भरी दुनिया में बुजुर्गों का मान सम्मान, आदर घटता जा रहा है। उनके स्वर्गवासी होने पर श्राद्ध करके यह बताने का प्रयास किया जाता है कि वे कितने पितर-भक्त हैं। यह तो श्राद्ध की, या यूं कहें कि अपने पितरों की तौहीन है।
यदि सचमुच, तहेदिल से जीते-जागते मां-बाप व बुजुर्गों की सेवा की जाए तो मृत्योपरांत अपने स्वर्गीय परिजनों को स्मरणांजलि प्रस्तुत करना श्राद्ध के माध्यम से सार्थक है। आज के आधुनिक माहौल में पल बढ़ रहे युवा अपने मां बाप का कितना ख्याल रख रहे हैं, कितना मान सम्मान दे रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। आज के युवा मां-बाप की गाढ़ी कमाई से पढ़ाई करके अधिक तनख्वाह पाने की लालच में देश-विदेश में अपने मां बाप से दूर चले जाते हैं।
मां बाप को पैसे भेजकर अपना फर्ज पूरा कर लेते हैं। जिस बेटे पर मां-बाप ने पैदा करने से लेकर लायक बनाने तक अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, उसको अपने मां बाप से मिलने तक की फुरसत नहीं है। कई बार देखा गया है कि ऐसे बेटे अपने बीमार मां-बाप को देखने तक नहीं आते हैं। कई तो उनके मरने के बाद उन्हें कंधा देने के लिए भी नहीं आते हैं। ऐसे लोग अपने मां बाप व पूर्वजों का श्राद्ध मनाने के बिल्कुल भी अधिकारी नहीं हैं।
धर्म ग्रंथों में लिखा है कि जो लोग जीवित मां-बाप का ख्याल नहीं रखते और मरे पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं, ऐसे लोगों को भारी दोष और पाप लगता है। ऐसे लोगों का कभी कल्याण नहीं हो सकता।
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता मातरं पितरं तस्मात सर्वयत्नेन पूजयेत्प। माता-पिता के लिए लिखित इस श्लोक में माता-पिता के प्रति आस्था और कर्तव्य की परिभाषा स्पष्ट रुप से लिखी गई है कि मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान है तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय है। मां बाप ही हमारे सब कुछ हैं, इन्हीं के चरणों में चारों धाम हैं। अत: सभी का यह परम कर्तव्य है कि वे माता पिता की सेवा व आदर करें।
जो माँ बाप की सच्चे मन से सेवा करता है, उसे किसी अन्य तीर्थ पर यात्रा की व अन्य किसी देवता की पूजा की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि माता पिता के रूप में उसके पास सब कुछ यहीं विद्यमान है। पर जिनको माँ-बाप की कद्र नहीं उनके लिए इतना ही कहना है कि वे भगवान की मूर्ति को साफ करने के साथ साथ माता-पिता के चश्मे का शीशा भी साफ करें,
मंदिर में खुशबूदार अगरबत्ती लगाने के साथ साथ माता पिता के कमरे में मच्छर वाली अगरबत्ती भी लगाएं, मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च में माथा टेकने के साथ साथ अपने माता-पिता के चरणों में भी माथा टेकें जो आपके जन्मदाता हैं और भगवान से कम नहीं। अगर माँ बाप बीमार हैं तो उनका इलाज कराइए।
कैलाश शर्मा