पेशे से अंग्रेजी के प्रोफेसर होने के बावजूद हिंदी के मूर्धन्य विद्वान, आलोचक, विचारक चिंतक, निबंधकार, ऋग्वेद और मार्क्स के अध्येयता, तुलसीदास, तानसेन और ताजमहल को भारतीय सौंदर्य का प्रतीक मानने वाले डॉ. रामविलास शर्मा को उनके साहित्य को समझने पढ़ने वाले आज उनके जन्मदिन पर उनके व्यक्तित्व कृतित्व को याद कर रहे होंगे। उन्नाव जनपद की तहसील पुरवा के गांव ऊंच गांव सानी में 10 अक्तूबर 1912 को जन्मे राम विलास शर्मा का गांव बैसवारा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। उसी बैसवारा के महत्व के बारे में वह स्वयं लिखते हैं कि गंगा लोन सई नदियों से सींची हुई बैसवारे की धरती उपजाऊ है। यहां की अमराइयों में कोसों तक बौर महक उठते हैं, चांदनी रात में सफेद धरती पर चुपचाप रस भरे महुवे टपकते हैं। तालों में कहीं लाल- सफेद कमल, रात में खिली हुई कोका बेली, भीगती हुई सनई की गंध, ज्वार के पेड़ों में लिपटी हुई कचेलियों का सोंधापन, जौ और गेहूं के खेतों में शांत बहता हुआ पुर से निकलता हुआ कुएं का पानी, ऐसा कौन होगा जिसको ऐसी अपनी धरती से प्यार ना हो। जिसे वह अक्सर तब समझते हैं, जब उन्हें बैसवारे से दूर जाना और रहना पड़ता है।
उक्त शब्दों के जनक शर्मा के जीवन में यहां की ग्राम्य संस्कृति रग रग में समाई थी। डॉ. शर्मा ने 1934 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक करके वहीं अपना शोध प्रबंध जमा किया और यहीं अंग्रेजी विभाग में पांच वर्षों तक अध्यापन किया। उसके बाद 1943 से 1971 तक आगरा के बीआर कालेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके पश्चात 1974 तक केएम मुंशी हिंदी संस्थान के निदेशक पद की जिम्मेदारी सम्हाली।
हिंदी के नवजागरण काल की परंपरा के पोषक डॉ. शर्मा का प्रारंभिक जीवन स्वाधीनता संग्राम के तत्कालीन क्रांतिकारियों में बीता था। यही कारण रहा उनके जीवन व कार्यों में क्रांतिकारिता का प्रभाव तथा कर्मठता कूट कूट कर भरी थी। वह हिंदी के अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने पुरस्कारों की बड़ी से बड़ी राशियां स्वीकार नहीं की। हिंदी के क्षेत्र में इतना बहुमुखी मौलिक युग प्रवर्तक साहित्यकार दूसरा नजर नहीं आता। साहित्य समालोचना, काव्य रचना, सांस्कृतिक इतिहास लेखन, भाषा विज्ञान लेखन, भाषा विज्ञान दर्शन, इतिहास दर्शन, विश्व राजनीति, अनुवाद और सक्रिय संघटन जैसे क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले डॉ. शर्मा बौद्धिक कर्मठता के एक अप्रतिम प्रतिमान बन कर उभरे।
डॉ. शर्मा मार्क्सवादी थे जिसके कारण उनकी जासूसी भी की गई। इसी कम्युनिस्ट विचारधारा के कारण उनकी नौकरी तक में संकट खड़े हुए। डॉ. संपूणार्नंद तक ने उनको नौकरी से निकालने की सिफारिश की थी। डॉ. शर्मा का मानना था कि स्वदेशी का समर्थन होना चाहिए। पब्लिक सेक्टर में पूंजी का निवेश हो, देश का कालधन जब्त हो, टेकनालाजी में देश स्वनिर्भर हो और विदेशी पूंजी का प्रतिकार और निषेध हो। डॉ. शर्मा साहित्य और हिंदी भाषा के निर्माण में बाजार व्यापार को महत्व देने की बात करते हैं। इस क्षेत्र में उनकी मान्यताएं या तो मौलिक हैं या सामान्य प्रगतिवादियों से भिन्न। वे सौंदर्य को केवल व्यक्ति या विषय में नियत करने के स्थान पर दोनों की अंतरक्रिया के रूप में प्रस्तुत करते हैं। डॉ. शर्मा प्रगतिशील आंदोलन में प्रेम की संभावना को स्वीकृति प्रदान करते हैं। शर्मा की व्यावहारिक आलोचना का प्रस्थान बिंदु जहां रामचंद्र शुक्ल हं, वहीं साहित्यिक आलोचना का महत्वपूर्ण बिंदु निराला की साहित्य साधना है। निराला को अन्य विद्वानों ने शक्ति ऊर्जा और ओज का रचनाकार कहा परंतु डॉ. शर्मा ने उनके साहित्य में समाहित करुणा के मूल भाव को प्रतिस्थापित किया। रामविलास ने उन रचनाकारों के महत्व की स्थापना की जो साहित्य की जनवादी परंपरा से जुड़े थे।
भक्तिकाल को लोक जागरण और आधुनिक काल को नवजागरण मानते है। उन्होंने हिंदी आलोचना में यथार्थवादी चिंतन को आधार प्रदान किया तथा मार्क्सवादी समीक्षा और सौंदर्य शास्त्र की नींव रखी। उन्होंने भारतीय साहित्य और हिंदी जाति के साहित्य की सही अवधारणाएं प्रस्तुत कर साहित्य के इतिहास लेखन का नया वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया। (यह लेखक के निजी विचार हैं।)
सुनील अवस्थी