आज (30 मई) हिंदी पत्रकारिता दिवस है यानी एक दिन हमारा भी। लेकिन, यह दिन कोई होली-दीपावली जैसा कोई त्योहार नहीं है, बल्कि एक चिंतन पर्व है, क्योंकि हमारे कर्तव्य पालन के रास्ते में अनगिनत चुनौतियां सीना ताने खड़ी हैं, जिनमें से ज्यादातर हमने खुद पैदा कर रखी हैं, जाने-अनजाने। और, सबसे ज्यादा चुनौतियां हिंदी पट्टी में हैं। खैर, इस पर चर्चा आगे। 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस इसलिए मनाते हैं, क्योंकि वर्ष 1826 में इसी दिन कोलकाता (तब कलकत्ता) में पंडित युगल किशोर शुक्ल ने देश के पहले हिंदी समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ की शुरुआत की थी। यानी हिंदी पत्रकारिता का सफर 197 साल पुराना है।
साप्ताहिक ‘उदंत मार्तण्ड’ ने पत्रकारिता के पेशे को एक गौरवशाली स्थान दिलाया। अखबार की धाक सिर्फ कोलकाता तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई। आज तो पत्रकारिता के विभिन्न माध्यम हमारे सामने हैं, टीवी चैनल्स, वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और असंख्य समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएं। लेकिन, दम नहीं रहा। कोई धाक-धमक दूर-दूर तक नहीं दिखती। स्वार्थ हम पर हावी हो गए। पूरी की पूरी बिरादरी तरह-तरह के खांचों में बंटकर बिखर गई। और, जिन्हें हमारे द्वारा खबर या सूचना मिलने का भरोसा था, वे पाठक-दर्शक भी अच्छी तरह समझ गए कि हम कितने पानी में हैं।
‘व्यवस्था’ तो हमेशा यही चाहती रही है कि हम जो भी बोलें, उसके अनुरूप बोलें। अन्यथा न बोलें, चुप्पी साधे रहें। यही सबके लिए अच्छा है। याद कीजिए पत्रकार पुरोधा पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ को, जिन्होंने कहा था कि पत्रकार बनने से पूर्व आदमी को समझ लेना चाहिए कि यह मार्ग त्याग का है, जोड़ का नहीं। लेकिन, मौजूदा तस्वीर तो इसके ठीक उलट है। आज भी पत्रकारिता दिवस के मौके पर देश भर में जगह-जगह लंबी तकरीरें होंगी, बेहिसाब आदर्श बघारे जाएंगे और उपदेशों का वाचन होगा। अगली सुबह जिंदगी फिर अपने पुराने ढर्रे पर लौट आएगी। सवाल यह है कि क्या हमें ऐसे किसी आयोजन का हिस्सा बनने का अधिकार है अथवा नहीं? और यह भी कि हम अपनी नई पीढ़ी के लिए विरासत में क्या छोड़ रहे हैं?