खुशनसीब होते हैं वो जिन्हें रंगीन दुनिया नसीब होती है। प्रकृति एवं रंगों से ही जीवन की सार्थकता है। रंग हमारे जीवन में गहरे तक पैठ किये हुए हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी रंगों का अलग महत्व है। लाल रंग को खतरे का निशान बताया गया है, लाल रंग देखते ही मन बेचैन सा होने लगता है। पर सकारात्मकता की बात करें तो लाल रंग इंद्रियों एवं भावनाओं को झट से जागृत करता है। शक्ति ऊर्जा तथा जीवन में चल रहे उत्साह को भी दर्शाता है।
जोश जुगुप्सा का अच्छा संचार करता है लाल रंग। वहीं नीला रंग शांति सुकून का परिचायक है। शायद इन्हीं सब गुणा भागों से दो चार होने के बाद कलाकार भी अपने कृतियों में रंगों के प्रयोग को लेकर सक्रिय होता होगा। कलाकार मंजीत बावा भी ऐसे ही सक्रिय हुए थे। उनके रंग बिल्कुल ही स्पष्ट, तेज और मिलावट रहित थे विशेषत: पृष्ठभूमि के। रंगों से ही उनकी कृतियों को पहचाना जा सकता है। उनकी कृतियों के पृष्ठभूमि में लाल, नीला, पीला, बैगनीं कहीं-कहीं हरा भी दिख जाता है जो उनके बेखौफपन को दर्शाता है।
कलाकार मंजीत बावा के विषय वस्तु तो कुछ विशेष नहीं थे पर उस पर उनका शोध उस विषयवस्तु को विशेष बना देता था। कृतियों के मूल में बैठे चरित्रों पर किये गये कार्य ने उनको विशेष बना दिया। एनॉटामी के साथ किये गये बेहिचक एवं निडर प्रयोग ने उनकी कृतियों को विशेष बना दिया। सबसे बड़ी विशेषता तो पृष्ठभूमि में प्रयोग किये रंगों में निडरता ही रही, जहां काफी हद तक नुकसान का डर भी था। दर्शक, समीक्षक के त्वरित आलोचना के शिकार का भी डर था पर वो कलाकार ही क्या जो आलोचना से डरे। मंजीत बावा को भी नहीं पड़ता था बल्कि हमेशा नये की फिराक में बीतता था जीवन।
कलाकार यथार्थ से बिलग एक बार पुन: अमूर्तन की तरफ रुख कर रहे थे। गुटों का बिखराव भी साफ तौर से देखा जा सकता था। युवा कलाकार भ्रम की स्थिति में थे। खैर ऐसी स्थिति तो हमेशा से रही है और हमेशा ही रहेगी। गुरु शिष्य की परम्परा अभी कायदे से कला में ही है, तब भी थी। कलाकार मंजीत बावा के साथ भी थी। कहा जाता है कि गुरु अबानी सेन बावा को रोज पचास स्केच बनाने को बोल दिये थे।
मंजीत बावा रोज पचास स्केच बनाते, पर गुरुअधिकांश रद्द कर देते थे। उसी का फल रहा कि रेखांकन के साथ ही काम करने की निरंतरता, प्रयोगात्मकता, आकृतियों में नयापन आदि बावा के कार्यों में स्पष्टत: आ सकी। कलाकार बावा चटख रंगों के पक्षधर रहे हैं विशेषत: लाल के। उनकी कृतियों में लाल रंग दाल में हल्दी की तरह साफ है। सपाट रंग, आंखों को तुरंत प्रभावित करती हुई कृतियां, विषय की आजादी, आकृतियों के बनावट में पूरी स्वतंत्रता ही इनको विशेष बनाती है। इनको हरफनमौला कलाकार के रूप में भी देखा जाता रहा है।
मंजीत बावा के प्रिय विषयों में शिव, काली, कृष्ण, गोवर्धन, राँझा सहित कुछ मिथकीय एवं पौराणिक प्रसंग भी हैं। कृतियां यथार्थ न होकर भी यथार्थ का अनुभव कराती हैं। आकृतियां, भाव सब रिद्मिक है, छाया-प्रकाश बिल्कुल भी नहीं है। बावा बचपन से ही बांसुरी और गायों के प्रति सम्मोहित रहे, जो हमेशा उनके साथ रहा। उनके कृतियों में प्रकृति, पशु-पक्षी, मानव आदि का अच्छा सामंजस्य है। कृति ‘धर्म ऐण्ड द गॉड’ में ब्रह्मा के रूप को तथा गाय को कुछ अजीब शैली में दर्शाया गया है। शायद इसके पीछे उनके अध्यात्म का कुछ विशेष कारण रहा हो पर साधारणत: तो वहां तक पहुंच पाना मुश्किल सा हो गया है।
फंतासी सा जान पड़ा है चित्र। पंजाब के एक गांव में जन्मे बावा अपनी कला शिक्षा दिल्ली के कालेज आॅफ आर्ट्स से पूरी करने के बाद लंदन स्कूल आॅफ प्रिंटिंग चले गये, जहां से बहुत कुछ सीखने के बाद भी भारतीयता उनके भीतर जिंदा रही और यही भारतीयता उनको अलग पहचान दिला पाने में कारगर सिद्ध हुई। भारत भवन भोपाल से भी इनका संबंध रहा। कालीदास सम्मान, सैलोज पुरस्कार एवं ललित कला अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कई विशेष सम्मान मंजीत बावा की उपलब्धि रही है। 29 दिसंबर 2008 को बावा इस दुनिया से विदा हो गए।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-पंकज तिवारी