इंग्लैंड से लौटने के बाद जब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछूत और जातिवाद चरम पर था। उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा। सो उन्होंने हाशिये पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रूप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज कर दी। अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 1920 में बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की जो शीध्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया।
आठ अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती। डॉ. आंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे बल्कि वे इस्लाम धर्म में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के भी कटु आलोचक थे।
उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी कहीं अधिक बुराइयां हैं। मुसलमान उन्हें भाईचारे जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छिपाते हैं। उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्जल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें निचले दर्जे का माना जाता था, के साथ मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की जबरदस्त निंदा की। डॉ. आंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने इस्लाम धर्म में स्त्री-पुरुष असमानता का जिक्र करते हुए कहा कि बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुख के स्रोत हैं।
उन्होंने इस्लाम में उस कट्टरता की भी आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरश: अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है। उन्होंने लिखा है कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे इस्लामी देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया। राष्ट्रवाद के मोर्चे पर डॉ. आंबेडकर बेहद मुखर थे। उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की।
वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत स्वतंत्रता के बाद हर रोज रक्त से लथपथ हो। वे हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार थे। दरअसल आंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछूत की निंदा करते थे। जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह आंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए रुढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की।
रुढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा पंडित मदन मोहन मालवीय ने आंबेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते आंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। इसके बदले में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश-पूजा के अधिकार एवं छुआछूत समाप्त करने की बात स्वीकार ली गयी। गांधी ने भी इस उम्मीद पर कि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-अरविंद जयतिलक