‘राम’ शब्द ही ऐसा है जिसे सुनो तो शब्द ही ईश्वर की अनुभूति देता है। आखिर यह शब्द इतना मायने क्यों रखता है भारतीयों और भारतीयता के लिए? क्या भारतीयता की पहचान में ‘राम’ ऐसा है जैसा किसी भी शरीर की पहचान में उसका हृदय, यदि उसकी धड़कन रुक जाए तो जीवन खत्म। राम सभ्यता की गुहार हैं, संवेदना और प्रेम का परम आदर्श भी हैं राम। राम आदर्श ही तो हैं जीवन के लिए। राम से इतर जीना मतलब जीवन से इतर बस ऐसे जीते जाना, जिसमें कोई लावण्य नहीं हो। राम आदर्श हैं भक्ति के भी और भक्त को हृदय में रख संबल देने के भी।
राम सबसे बड़े आदर्श हैं मित्रता के, जो भी आता गया राम के जीवन में वो बस मित्र बनता गया और राम मित्रता निभाते गए। राम वो व्यक्ति हैं, जो व्यक्ति से भगवान हो गए। राम ने कभी नहीं कहा कि वो भगवान होना चाहते हैं, राम को भगवान बनाया उनके प्रेमियों ने, राम थे ही ऐसे। भारत की सभ्यता में यह बात चिरपरिचित है कि वह व्यक्ति जो पूरे समाज को जीवन सिखा दे, उसे भगवान बना दिया जाता है। उसे सबसे सर्वोच्च स्थान पर रखा जाता है।
राम शब्द में एक धुन है जिसे सुनते ही चाहते न चाहते हुए भी वह धुन कान से लेकर हृदय में बजने लगती है। राम हृदय में हों तो शुभ है, राम प्रेम के परिचायक हों तो शुभ है। राम सिर्फ समाज की ही नहीं संतों की भी प्रेरणा रहे। राम को सिर्फ लिखा ही नहीं, गाया भी है संतों ने। राम को जब आदर्श में ओत प्रोत तुलसी अपनीं चौपाइयों में गाते हैं तब भक्ति में सराबोर हो जाते हैं। वे कहते हैं-‘जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करहिं सब कोई/जिनके कपट, दम्भ नहिं माया, तिनके हृदय बसहूँ रघुराया।’
तुलसी ने यह भी कहा है कि होगा तो वही जो राम ने रचा है व्यर्थ तर्क करके भी क्या फायदा। जो राम को जपता है वह सुखधाम तक पहुँच जाता है, जैसे सती सुखधाम तक पहुँच गयीं। तुलसी के राम को सुनते ही आँख बंद कर बस भावविभोर हो जाने का मन करता है। पूरी प्रकृति सुहावन हो जाती है। वहीं जब यथार्थ से सुसज्जित कबीर राम को गाते हैं तब कहते हैं-‘तीन राम को सब कोई धावै, चतुर्थ राम को मर्म न पावे/एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा/एक राम का सकल पसारा, एक राम त्रिभुवन से न्यारा।
कबीर के राम को सुनते ही एक थपकी सी लगती है कि जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो, खुमारी से उठा दिया हो कि जिस सपने में तुम हो वो बस सपना है राम तो यहीं हैं। देखो कितने करीब, कितने हृदय में एकदम आत्मस्थ और तुम जग में राम को ढूंढ रहे हो। कबीर के इस राम को किसी भी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। कबीर के ये राम विचार और बुद्धि से परे राम हैं। यहां कबीर के राम ही ब्रह्म हो जाते हैं। आदि और अनंत हो जाते हैं, पर वो दुनिया में नहीं मिलते वो इन आँखों से देखने पर भीतर भी नहीं दीखते। उसके लिए तो आँखें भी राम की ही चाहिए। ठीक इसी बात पर कबीर का एक दोहा चरितार्थ हो जाता है कस्तूरी कुंडलि बसे, मृग ढूंढे बन माहि/ऐसे घटी घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि।
तुलसी और कबीर में बुनियादी भिन्नता होने के बावजूद एक आत्मीय समानता दिखती है। तुलसी भक्ति में सराबोर करते हैं तो खुमारी को भक्ति न समझ लो इससे कबीर जगा देते हैं और ऊँगली पकड़कर राम का रास्ता दिखाते हैं।
और जब वही राम गुरुनानक तक आते हैं तो नानक भी राममय हो जाते हैं, गुरुवाणी में दो हजार से भी अधिक बार राम के नाम का प्रयोग किया गया है। नानक तो चेताते हैं कि हे मन! राम के नाम का उच्चारण करो, आगे घोर अँधेरा है, राम का नाम ही तुम्हें पार लगाएगा। रहीमदास जैसे नानक और कबीर की बात को ही और आगे ले जाते हुए दिखते हैं। उन्होंने तो पहले ही बता दिया कि राम की महत्ता और राम को जाने बगैर यदि उस पार यानी यमलोक को पहुंचे तो वहां यम के सेवक भी तुम्हारे साथ किसी भी मर्यादा को नहीं मानेंगे।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-अमित तिवारी