उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में शायद ही कोई राम भक्त हो जिसने राधेश्याम रामायण का पाठ न किया हो या उनका नाम न सुना हो। बरेली के रहने वाले राधेश्याम के रामायण की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1910 से आसपास जब देश की कुल आबादी लगभग 25 करोड़ थी, तब उनके द्वारा लिखित रामायण की पौने दो करोड़ प्रतियां बिक चुकी थीं।
इस रामायण की खासियत यह है कि यह खड़ी बोली में लिखी गई है। जिन दिनों की यह बात है, उन दिनों लोगों के मनोरंजन का मुख्य साधन नाटक या रामलीलाएं हुआ करती थीं। रामलीलाएं तो दशहरे से कुछ दिनों पहले शुरू होती थीं और दशहरे के दिन या उसके एकाध दिन बाद खत्म हो जाती थीं। लेकिन नाटक कंपनियां तो पूरे साल जगह-जगह अपने नाटकों का मंचन करती रहती थीं। उन दिनों लाहौर, लखनऊ, दिल्ली, बंगाल, मुंबई, जोधपुर, ढाका आदि शहरों में नाटक कंपनियां अपना मंचन करते हुए घूमती रहती थीं।
एक बार की बात है। जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह ने न्यू अलबर्ट कंपनी को नाटक करने के लिए बुलाया। यह वह समय था, जब पारसी थिएटर कंपनियां गांव-गांव, शहर-शहर घूम घूमकर अपने नाटकों का मंचन करती थीं। नाटक देखने के बाद सवाई माधो सिंह ने न्यू अलबर्ट कंपनी के मालिक नानक चंद खत्री को बरेली के राधेश्याम से मिलकर रामकथा पर नाटक तैयार करने का सुझाव दिया। नानक चंद बरेली पहुंचे और उन्होंने राधेश्याम से मुलाकात की। आपसी सहमति से राधेश्याम ने कई नाटक लिखे। उनके द्वारा रचित वीर अभिमन्यु नाटक का एक लाख से अधिक मंचन हुआ। अपनी प्रतिभा से रामकथा को घर-घर पहुंचाने वाले राधेश्याम को लोग अब भी नहीं भूले हैं। उनकी राधेश्याम रामायण आज भी काफी बिकती है।
–अशोक मिश्र