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आसान नहीं है रामलला से रामराज तक की यात्रा

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बाईस जनवरी रामलला के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो गई। रामलला पूर्णरूप से विराजमान हो गए। पूरे देश में हर्षोल्लास था। चारों ओर जगमग वातावरण, जिधर दृष्टि डालो उधर ही राम नाम का ध्वज, जिधर सुनो उधर ही राम नाम का भजन, घरों और मंदिरों में कीर्तन। घर-घर में दिए जलाये गए, तरह तरह के व्यंजन बने, पकवान बने। भारतीय समाज को एक नया त्यौहार मिल गया। हर वर्ष अब इस तिथि को वर्षगांठ के रूप में मनाया जायेगा। ऐसी संभावना है। कोई आसमान से देखता तो कहता जनवरी में दीवाली मनाई जा रही है। राम आस्था हैं, राम भारत की संस्कृति के आधार हैं, सभ्यता के सूचक हैं। राम गृहस्थों के भी राम हैं और साधु संतों के भी राम हैं।

राम का नाम लेते ही जैसे हृदय शीतल हो जाता है। राम के आने से राम जैसा राज भी आएगा, ऐसी मान्यता है। राम के आने से सबके जीवन में सुकून और प्रेम आएगा, ऐसा कहा जा रहा है और आएगा रामराज भी। रामराज आये इसके लिए यह भी जानना आवश्यक है कि आज के समय में रामराज कैसा होना चाहिए? रामराज की परिकल्पना तब जब विश्व संस्कृतियां, विश्व सभ्यताएं, विश्व भाषाएं आपस में हिल मिल गयी हैं। रामराज की परिकल्पना इन्टरनेट और फिर आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के परिवेश में कैसी होनी चाहिए? रामराज की परिकल्पना जब देश, लोकतंत्र और तरह तरह को राजनीतिक दल, तरह तरह के मुद्दे, तरह तरह के विचार, तरह तरह के संप्रदाय, धर्म से फल फूल रहा हो और जिसमें रीतियों के साथ साथ कुरीतियों का भी बोलबाला हो।

रामराज की परिकल्पना जब भारतीय समाज खासकर सनातन समाज का एक बहुत ही बड़ा हिस्सा सनातन के मूल ग्रंथों जैसे वेद और वेदों की आत्मा उपनिषदों से अनभिज्ञ हो और सामान्य रूप से प्रचलित कर्मकांड, पूजापाठ और रीति-रिवाजों, परम्पराओं को ही सनातन धर्म मानता हो। बिना वेदांत के भारत रामराज की परिकल्पना कैसे कर सकता है जबकि वेदान्त तो पूरे सामज से ही आज के समय में जैसे अछूता है। यदि आपसे प्रश्न किया जाये कि कितने लोग वेदान्त को जानते हैं या पढ़ते हैं, तो जरा सोचकर देखिये आपका उत्तर क्या होगा? और क्या बिना वेदान्त के, उपनिषद् के आप भारतीय सनातन परम्परा की परिकल्पना कर भी सकते हैं?

जब भारतीय सनातन परंपरा की ही परिकल्पना नहीं की जा सकती, तो फिर पूरे समाज में ऐसे राज की परिकल्पना कैसे संभव है? रामराज की परिकल्पना तभी संभव है, जब पूरा समाज धर्मनिष्ठ आध्यात्मिक हो परन्तु वह धर्म अधूरा है जहाँ सिर्फ मान्यताओं और परम्पराओं को ही प्रथम रखा जाता है। इसके लिए आवशयक है कि वेदान्त भी घर-घर में हो जिसका सही तरीके से पाठ हो और आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो, तब जाकर धर्म अपने पूर्ण स्वरूप में होगा।

धर्म के विमर्श के इतर कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिन पर हमें दृष्टि डालनी होगी। जैसे समाज का ढांचा और उसमें पल रही हिंसा। हिंसा का परिमापन इसलिए भी आवश्यक है कि बिना उसके आध्यात्मिक होना असंभव है और फिर धार्मिक तो हुआ ही नहीं जा सकता। अत: रामराज की परिकल्पना भी आधी-अधूरी ही रह जाएगी। समाज में हिंसा कई तरह से व्याप्त है। व्यक्ति जन्म के साथ ही कुछ हिंसा लेकर आता है और बाकी हिंसा यहीं समाज में सबके बीच में रहकर सीखता है। पूर्ण रूप से व्यक्ति अहिंसक हो जाए ऐसा तो लगभग असंभव है।

जीने के लिए किये गए प्रयासों में बहुत से ऐसे कार्य हैं जो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हिंसा से जुड़े ही हैं परन्तु जीवित रहने के लिए कहीं न कहीं से हिंसा का होना और मन की इच्छाओं या यों कहें कि लगभग सभी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए कार्यों में जो हिंसा है संभवत: उस हिंसा के बिना भी जीवन जिया जा सकता है। हिंसा कमतर रखते हुए भी आगे बढ़ा जा सकता है। जितना समृद्ध हम होते गए उतनी ही हिंसा भी बढ़ती गई।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

-अमित तिवारी

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