प्राचीनकाल में देश कई राज्यों में बंटा हुआ था। इन राज्यों की शासन व्यवस्था राजाओं के हाथ में थी। इन राजाओं के अपने-अपने नियम और कानून हुआ करते थे। लेकिन शिक्षा व्यवस्था लगभग एक ही समान थी। सभी राज्यों में गुरुकुल हुआ करते थे। इन गुरुकुलों में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार व्याकरण, धर्मशास्त्र, गणित आदि की शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्यों को समाज और परिवार में आचरण करने की शिक्षा भी दिया करते थे।
शिक्षा खत्म होने के बाद गुरुकुल के आचार्य व्यावहारिक परीक्षा भी लिया करते थे। एक बार की बात है, एक गुरुकुल में शिष्यों की परीक्षा होनी थी। परीक्षा से एक दिन पहले दो शिष्य गुरुकुल के आचार्य के साथ नदी में स्नान करने गए। तीनों लोग स्नान करके पूजा में बैठ गए। अभी पूजा शुरू ही हुई थी कि तभी नदी से आवाज आई, मुझे बचाओ। मैं डूब रहा हूं। यह आवाज सुनकर एक शिष्य तो बैठा रहा, लेकिन दूसरा शिष्य उठा और जिधर से आवाज आई थी उधर गया और नदी में बालक को डूबते देखकर छलांग लगा दी। उसने काफी कड़ी मशक्कत के बाद बालक को डूबने से बचा लिया।
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वह शिष्य बालक को घाट की सीढ़ियों पर लाया और उसका आवश्यक उपचार करने लगा। यह देखकर आचार्य ने उस शिष्य से पूछा, वत्स! तुमने उस बच्चे की पुकार नहीं सुनी। उस शिष्य ने कहा कि सुनी थी, लेकिन यदि उसे बचाने जाता तो पूजा अधूरी रह जाती। इस पर आचार्य ने कहा कि तुमने धर्मशास्त्र तो पढ़ा, लेकिन उसका मर्म नहीं समझा है। इस शिष्य ने धर्म का मर्म अच्छी तरह समझा है। किसी का जीवन बचाना किसी पूजा-पाठ से बेहतर है। यह सुनकर वह शिष्य बहुत शर्मिंदा हुआ। उसने आचार्य से क्षमा मांगी।
अशोक मिश्र
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