कलकत्ता विश्वविद्यालय को उन्नति के शिखर तक ले जाने में सर आशुतोष मुखर्जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी में कलकत्ता गणितीय सोसाइटी की स्थापना कराई और बहुत दिनों तक उसके अध्यक्ष भी रहे। वह सन 1920 से 1924 तक कलकत्ता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी रहे। इनका सबसे सराहनीय कार्य अपनी बाल विधवा बेटी का पुनर्विवाह कराना था। उन दिनों बंगाल सहित अन्य प्रदेशों में विधवा विवाह को अच्छा नहीं माना जाता था। एक बार की बात है। वह सुबह गंगा स्नान करके लौट रहे थे।
गंगा की सीढ़ियों के पास एक बुजुर्ग महिला गुमशुम बैठी हुई थी। आशुतोष मुखर्जी को उसकी दशा देखकर दया आई और उन्होंने उससे पूछा कि मां, आप उदास क्यों हैं? उस महिला ने कहा कि बेटा, आज मुझे अपने पति का श्राद्ध करना है। कोई पंडित नहीं मिल रहा है जो कर्मकांड करके मेरे पति का श्राद्ध कर दे। मुखर्जी ने कहा कि चलो, मां मैं श्राद्ध करा देता हूं। इसके बाद वे उस महिला के साथ उसके घर गए और विधिविधान के साथ उन्होंने उसके पति का श्राद्ध कराया।
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उस महिला ने एक दोने में थोड़ा सा चावल और गुड़ की डली दी जिसे वे बड़ी श्रद्धा के साथ लेकर घर चले आए। उनके इस कार्य को कुछ लोगों ने पसंद नहीं किया। एक मित्र ने तो उनसे यहां तक कह दिया कि आपको अपने पद का ख्याल रखना चाहिए। आप भी अंधविश्वास बढ़ाने वाला काम कर रहे हैं। मुखर्जी ने कहा कि मैं न्यायाधीश होने से पहले इंसान हूं। मुझसे उस मां का दुख देखा नहीं गया। उस मां का दुख दूर करना मुझे अच्छा लगा। मैं इस काम में अंधविश्वास जैसी कोई बात नहीं देखता हूं। यह सुनकर आशुतोष मुखर्जी का वह मित्र चुप होकर अपने रास्ते चला गया।
-अशोक मिश्र
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