गोपाल कृष्ण गोखले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाज सुधारक और विचारक थे। बचपन से ही इनका मानना था कि जो भी काम किया जाए, पूरी निष्ठा से किया जाए। चरित्र की शुचिता पर इनका बहुत जोर था। बात तब की है, जब गोपाल कृष्ण गोखले नवयुवक थे। उन दिनों पुणे के एक अंग्रेजी विद्यालय में कार्यक्रम होना था। इस कार्यक्रम में आने वाले अतिथियों को निमंत्रण पत्र साथ लाना था। युवा गोपाल कृष्ण गोखले को विद्यालय के प्रवेश द्वार पर नियुक्त किया गया। उनके कहा गया कि जो भी व्यक्ति आए, उसका प्रेम से स्वागत करना है।
उसका निमंत्रण पत्र देखने के बाद ही अंदर जाने देना है। अपने काम पर युवा गोखले डट गए। जो भी आता, वे बड़े आदर के साथ उसका स्वागत करते और फिर उसका निमंत्रण पत्र देखते और अंदर भेज देते। उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे। जैसे ही रानाडे मुख्य द्वार पर गोखले ने तपाक से अभिवादन किया और उनसे पत्र दिखाने को कहा। रानाडे के पास निमंत्रण पत्र नहीं था। गोखले ने रानाडे को अंदर जाने नहीं दिया।
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जब कार्यक्रम शुरू होने का समय आया और रानाडे नहीं पहुंचे तो स्वागत समिति का पदाधिकारी बाहर निकला। द्वार पर रानाडे को खड़ा देखकर कहा, अरे आप यहां क्यों खड़े हैं। गोखले ने कहा कि इनके पास निमंत्रण पत्र नहीं था, तो मैंने इन्हें अंदर नहीं जाने दिया। तब पदाधिकारी ने बताया कि यही समारोह के मुख्य अतिथि हैं। रानाडे उसी समय से गोखले की कर्तव्य परायणता के प्रशंसक हो गए। बाद में गोखले ने महादेव गोविंद रानाडे को अपना गुरु मान लिया। मजेदार बात यह है कि महादेव गोविंद रानाडे के इसी शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को महात्मा गांधी अपना गुरु मानते थे।
-अशोक मिश्र
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