गुजरात के टंकारा प्रांत में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को वर्ष 1824 ईसवी में स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण इनका नाम मूल शंकर रखा गया। 21 वर्ष की आयु में मूल शंकर ने संन्यास ग्रहण किया और उनका नाम रखा गया दयानंद सरस्वती। उन्होंने आजीवन पाखंड, अंधविश्वास और कुरीतियों का विरोध किया। उन्होंने पुराणों और वेदों को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। वह भारत की गुलामी और युवाओं को अपने देश के प्रति किए जाने वाले कर्तव्य से विमुख देखकर बहुत खिन्न हुए। उन्होंने युवाओं को जाग्रत करने का हरसंभव प्रयास किया। उन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की।
आर्य समाज के जरिये उन्होंने धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया। एक बार की बात है। वह किसी काम से कुछ दिनों के लिए फर्रुखाबाद आए। उन्होंने गंगा नदी के किनारे अपना आसन जमाया। वहां वह अपनी साधना में निमग्न हो गए। पास में ही एक झोपड़ी में साधु रहता था। उसे स्वामी दयानंद सरस्वती का वहां आसन जमाना बहुत बुरा लगा। वह रोज आकर स्वामी जी को भला-बुरा कहता था। वह गालियां देने से भी नहीं हिचकता था।
एक दिन स्वामी जी का एक शिष्य टोकरी भर फल लाया। स्वामी जी ने कुछ फल अपने पास रखते हुए बाकी उस साधु के पास भेज दिया। साधु ने जब जाना कि यह फल स्वामी जी ने भेजे हैं, तो वह कटुवचन बोलते हुए फल को वापस भेज दिया। शिष्य ने आकर स्वामी जी को सारी बात बताई। तब स्वामी जी ने कहा कि जाकर उससे कहो कि प्रतिदिन आप जो मुझ पर अमृत वर्षा करते है, उससे कमजोर हो गए होंगे। आप फल खा लें ताकि फिर अमृत वर्षा कर सकें। यह सुनकर साधु बहुत लज्जित हुआ और स्वामी जी से माफी मांगी।
-अशोक मिश्र