चीन भले ही आज विस्तारवादी नीतियों के कारण एशिया महाद्वीप के ज्यादातर देशों में अप्रिय हो, लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब चीन में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। चीन के लोग मृदुभाषी और व्यवहार कुशल हुआ करते थे। वे गौतम बुद्ध को भगवान मानते थे और उनकी पूजा किया करते थे। वे अतिथियों का बड़ा आदर सत्कार करते थे। चीन जब बीसवीं शताब्दी में आजाद हुआ, तो बहुत सारी परिस्थितियां बदल गईं। यह बात भारत और चीन की आजादी से कई दशक पहले की बात है। एक बार पता नहीं क्या हुआ कि चीन के लोग विदेशियों से बहुत नाराज हो गए।
उन्होंने तय किया कि जो भी विदेशी उनके गांव में आएगा, उसे मार भगाया जाएगा। उन्हीं दिनों स्वामी विवेकानंद चीन गए हुए थे। वह संन्यासी होते हुए भी लोगों से मिलने जुलने और उनकी समस्याओं को समझने में बहुत रुचि रखते थे। चीन में कुछ दिन रहने के बाद एक दिन उनके मन में आया कि चीन के गांवों में भी जाकर देखना चाहिए। उनकी जीवन शैली और खान-पान के बारे में भी जानकारी लेनी चाहिए। उनकी मंशा जानकर दुभाषिये ने वहां जाने से मना किया। दो जर्मन नागरिक भी थे जो चीन के गांवों का भ्रमण करना चाहते थे, लेकिन वे गांवों में जाने से डरते थे।
स्वामी विवेकानंद ने कहा कि वे लोग भी तो प्रेम की भाषा जानते होंगे। जब स्वामी विवेकानंद ने पक्का कर लिया वहां जाना है, तो दुभाषिया भी दोनों जर्मन के साथ चला। गांव पहुंचने पर लोग लाठी लेकर दौड़े, तो स्वामी जी ने कहा कि तुम अपने भाई से प्रेम नहीं करते हो क्या? दुभाषिये ने जैसे ही उनकी भाषा में यह बात कही, वे लज्जित हो गए। उन्होंने स्वामी विवेकानंद की खूब आवभगत की और तय किया कि अब लोगों को गांव से भगाएंगे नहीं। स्वामी जी ने प्रेम से सबको अपना बना लिया था।
-अशोक मिश्र
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