मिजोरम में क्या एक नया असंतोष पनप रहा है? शायद अभी इस बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन जिस तरह मणिपुर से कुकी, म्यांमार में चिन और बांग्लादेश से कुकी-चिन भागकर मिजोरम में शरण ले रहे हैं, ऐसी स्थितियां भविष्य में चिंता का कारण बन सकती हैं। मिजोरम सरकार इन सभी को अपने यहां शरण दे रही है। केंद्र सरकार ने भले ही इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया है, लेकिन राज्य सरकार इनके रहने-खाने से लेकर हर तरह का ख्याल रख रही है। अप्रैल से मणिपुर में फैली हिंसा के चलते मैतोई और कुकी जनजातियों में जातीय विद्वेष घर करता जा रहा है। हजारों कुकी लोग भागकर मिजोरम पहुंच गए हैं। मिजोरम सरकार इनका बाहें पसार कर स्वागत इसलिए कर रही है क्योंकि कुकी, चिन और लुसाई समुदाय अपने को एक ही मानते हैं।
दरअसल, इन तीनों जनजातियों को सम्मिलित रूप से ‘जो’ कहा जाता है। ब्रिटिश शासन काल में इन तीनों जनजातीयों को अलग कर दिया गया था। इतिहास बताता है कि जनवरी 1892 में कलकत्ता (अब कोलकाता) के विलियम फोर्ट में अविभाजित बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चार्ल्स अलफ्रेड एलियट की अध्यक्षता में एक सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में सामरिक और नागरिक प्रशासन के तमाम वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल हुए थे। मुद्दा था कुकी, चिन और लुसाई जनसमुदाय की एकता को तोड़ने के लिए उनके निवास क्षेत्र को बांटने का। सम्मेलन में तय किया गया कि जिस विस्तृत इलाके में उन जातीय समूहों के लोग रहते हैं, उन्हें तीन हिस्सों में बांट दिया जाए।
चिन हिल्स पर बर्मा, लुसाई हिल्स के दक्षिणी हिस्से पर बंगाल और उत्तरी हिस्से पर असम का नियंत्रण रहेगा। जबकि कुकी, चिन और लुसाई समुदाय के लोगों का कहना था कि चिन-लुसाई हिल्स को एक प्रशासनिक छतरी के नीचे लाया जाए, लेकिन उनकी बात को माना नहीं गया। कुकी, चिन और लुसाई जनजातीय लोगों को धर्म और संस्कृति काफी गहराई तक जोड़ती है। ये तीन जनजातियां अपने को एक दूसरे का हिस्सा मानती हैं। तीनों ईसाई धर्म मानने वाले लोग हैं। इनकी संस्कृति भी एक है। इन तीन जनजातियों की मिली जुली आबादी मिजोरम में रहती है। यही वजह है कि म्यांमार में तख्तापलट के बाद भारत में भागकर आने वाले लोगों को मिजोरम में शरण दी जा रही है।
बांग्लादेश की सीमा पर बसे लोग भी जरूरत पड़ने पर मिजोरम या उसके पड़ोसी राज्यों में शरण लेते रहे हैं। सवाल यह है कि जो मिजोरम आज इन लोगों का खुलेआम स्वागत कर रहा है। वह इनका बोझ कब तक सह पाएगा? म्यांमार में 1964 से चिन नेशनल फ्रंट स्वतंत्र चिनलैंड की मांग कर रहा है। इसी तरह बांग्लादेश में चिन और कुकी समुदाय चटगांव इलाके में स्वायत्त क्षेत्र की मांग कर रहे हैं। मणिुपर में कुकी जिस तरह मैतोई के खिलाफ लड़ रहे हैं। उससे एक आशंका जन्म लेती है कि कहीं मिजोरम में इन तीनों समुदायों के लोग ‘जो राष्ट्र’ की मांग न कर बैठें? यह कहना मुश्किल है कि मिजोरम इस घातक त्रिपक्षीय दबाव को कब तक आसानी से सहन कर सकेगा। यदि भविष्य में ऐसा हुआ, तो यह भारत के लिए एक नई मुसीबत होगी। हालांकि अभी इसकी आशंका दूर-दूर तक नहीं है।
संजय मग्गू