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लाखों मुद्राएं होने पर भी सुखी नही

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खुदा से तीन दिन की जिंदगी का पट्टा ला दोअशोक मिश्र

अशोक मिश्र

राजा भोज का जन्म परमार वंश में सन 1010 में हुआ था। वह मध्य भारत के सबसे प्रभावशाली राजा माने जाते थे। उनके बारे में यह किंवदंती प्रसिद्ध है कि उनके राज्य में कोई भी अनपढ़ नहीं था। राजा भोज ने अपने जीवन में कई लड़ाइयां लड़ी थीं और उनमें विजय हासिल की थी। कहा जाता है कि राजा भोज बड़े विद्वान थे और उन्होंने काव्य शास्त्र, शब्दकोष, भवन निर्माण आदि से संबंधित कई पुस्तकों की रचना की थी। एक बार की बात है। राजा भोज किसी काम से राजधानी से बाहर निकले और वह कुछ कारणों से अपने सैनिकों से बिछुड़ गए। वन में उन्होंने देखा कि एक लकड़हारा चला आ रहा है। उसके सिर पर लकड़ियों का गट्ठर था। वह मस्ती में झूमता जब राजा के पास पहुंचा, तो उसने राजा भोज को अभिवादन तक नहीं किया। राजा भोज ने उससे पूछा, भाई तुम कौन हो? उस लकड़हारे ने कहा कि मैं अपने मन का राजा हूं। राजा ने कहा कि तुम कितना कमा लेते हो? उसने कहा कि मैं छह मुद्राएं कमाता हूं। पहली मुद्रा में अपने ऋणदाता को देता हूं जो मेरे माता-पिता हैं। जिन्होंने मुझे पाल पोसकर बड़ा किया है। दूसरी मुद्रा मैं अपने पुत्र-पुत्रियों को देता हूं ताकि जब मैं बूढ़ा हो जाऊंगा, तो वे मुझे वह वापस कर देंगे। तीसरी मुद्रा मैं अपनी पत्नी को देता हूं। वह मेरे लिए एक मंत्री की तरह काम करती है। वह मुझे नेक सलाह देती है, मेरे सुख का ध्यान रखती है। चौथी मुद्रा में अपने भविष्य के लिए बचाकर रखता हूं। पांचवीं मुद्रा मैं अपने ऊपर खर्च करता हूं। इतनी मेहनत करता हूं तो अपने ऊपर खर्च करना जरूरी है। छठवीं मुद्रा मैं अथिति के लिए बचाकर रखता हूं। यह सुनकर राजा भोज चकित रह गए कि मात्र छह मुद्राएं कमाने वाला इतना सुखी जीवन बिताता है। उनके पास लाखों मुद्राएं हैं, लेकिन सुख नहीं है

अशोक मिश्र

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