संजय मग्गू
मध्य पूर्व एशिया में पिछले एक साल से युद्ध का नगाड़ा बज रहा है। पिछले साल अक्टूबर में शुरू हुए इजरायल-हमास युद्ध ने अब विस्तार पा लिया है। इसमें ईरान, यमन और लेबनान जैसे देश भी शामिल हो गए हैं। स्वाभाविक है कि इजरायल को अब इन सबसे एक साथ मोर्चा लेना पड़ रहा है। नतीजा इजरायल की अर्थव्यवस्था गहरे संकट की ओर बढ़ती दिख रही है। आर्थिक मंदी की ओर कदम दर कदम बढ़ते इजरायल की परेशानियों का हाल यह है कि उसे एक ओर अपने दुश्मनों को जवाब भी देना है, उनके हमलों से बचाव भी करना है और युद्ध पर होने वाले खर्चों को भी मैनेज करना है। वहीं अब धीरे-धीरे इजरायल की जनता में इस युद्ध को लेकर असंतोष भी बढ़ता जा रहा है। अभी दो दिन पहले रविवार को हमास युद्ध में मारे गए लोगों के लिए आयोजित श्रद्धांजलि सभा में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भाषण के दौरान ही एक बड़ी संख्या में लोगों ने ‘शेम आॅन यू’ के नारे लगाए। यह इजरायली जनता में भीतर ही भीतर धधक रहे असंतोष की एक बानगी भर है। वैसे यदि यह कहा जाए कि यदि इजरायल बनाम हमास, ईरान, लेबनान युद्ध जल्दी ही नहीं रोका गया, तो इस युद्ध में चाहे-अनचाहे कुछ और देशों को कूदना पड़ सकता है। तब हालात काफी विकट हो जाएंगे। देशों की अर्थव्यवस्थाएं जर्जर और चौपट होने की कगार पर पहुंच जाएंगी। बात दरअसल यह है कि युद्ध कभी अर्थव्यवस्था और नागरिकों के लिए फायदेमंद नहीं होते हैं। इजरायल अपने ओर आने वाली मिसाइलों और ड्रोन्स को रोकने के लिए पिछले एक साल में लाखों डॉलर खर्च कर चुका है। खुद इजरायली सरकार का अनुमान है कि हमास और हिजबुल्लाह के खिलाफ कार्रवाई में अब तक 60 अरब डॉलर से कहीं ज्यादा खर्च हो चुका है। इजरायल के वित्त मंत्री बेजालेल स्मोट्रिच अपने देश की संसद नेसेट में कह चुके हैं कि हम इन दिनों इजरायल के इतिहास का सबसे महंगा युद्ध लड़ रहे हैं। हालात यह है कि अगर यह युद्ध अगले साल भी जारी रहता है, तो उसे 93 बिलियन डॉलर से अधिक खर्च करना होगा। और यह रकम इजरायल की जीडीपी का कुल छठवां हिस्सा है। हालात कितने बदतर हैं कि बैंक आफ इजरायल को सरकारी बॉंड्स को अपने देश और विदेश में कर्ज देने वालों को बेचना पड़ रहा है। इसके बावजूद विदेशी इन बॉंड्स को खरीदने में उतनी रुचि नहीं दिखा रहे हैं जितनी की इजरायल ने अपेक्षा की थी। सरकार को ब्याज भी ज्यादा चुकाना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में इजरायल और अन्य लड़ रहे देशों को सोचना चाहिए कि युद्धरत देशों के अलावा युद्ध क्षेत्र से बाहर खड़े होकर जो देश शाबाशी दे रहे हैं, वह अर्थव्यवस्था कमजोर होने पर मदद देने नहीं आएंगे। देंगे भी तो कर्ज जिसका वे बड़ी निर्ममता से ब्याज भी वसूलेंगे। युद्ध का तमाशा देखने वाले देश उन बारातियों की तरह हैं जो खा-पीकर घर चले जाएं और अगर कोई दिक्कत है तो वर-वधु के पक्ष वाले भुगतें।
संजय मग्गू