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लोकतंत्र का विकृत स्वरूप है चुनाव में “नोट तंत्र”

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आज महाराष्ट्र व झारखंड में विधानसभा के आम चुनाव के साथ-साथ देश के कई राज्यों में विधानसभा व लोकसभा के उपचुनाव के लिए मतदान होना है। संबंधित क्षेत्र के मतदाता अपने मत का उपयोग कर अपने पसंदीदा विधायक, सांसद व सरकार चुनेंगे। यह भारत के लोकतंत्र की सुंदरता है की यहां हर व्यक्ति के वोट का बराबर महत्व है चाहे वह समाज के किसी जाति, धर्म, वर्ग या क्षेत्र से आता हो। लेकिन, इसके साथ-साथ ही चुनाव के अंदर धनबल व बाहुबल लोकतंत्र पर बदनुमा दाग भी हैं। आज होने वाले चुनाव के एक दिन पूर्व यानी मंगलवार को महाराष्ट्र में चुनाव के लिए पैसों के उपयोग का आरोप लगा। मामले में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव विनोद तावडे पर एफआईआर भी हुई। चुनाव आयोग की अधिकृत जानकारी के अनुसार इस मामले में नौ लाख रुपये नगद तथा कुछ कागजात भी बरामद भी किए गए। चुनाव आयोग द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर, जिसमें कि चुनाव आयोग का यह संदेश छुपा हुआ था कि उसके लिए सब बराबर है और निष्पक्ष चुनाव करना ही उसकी प्राथमिकता में है। अब इसमें जांच होगी और तथ्यों के आधार पर होने वाली जांच के बाद सब कुछ सामने आएगा कि आखिर सत्य क्या था। एक तरफ जहां खुद विनोद तावड़े ने इसकी निष्पक्ष व गहन जांच करने की मांग की वही इस सारे मसले को विपक्ष के नेताओं ने अपने-अपने अलग अंदाज से जोड़ने का प्रयास किया। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इस सारे मामले में सोशल मीडिया एक्स पर वीडियो वायरल कर पोस्ट में प्रधानमंत्री सहित भाजपा के बड़े नेताओं से जवाब मांग लिया। कांग्रेस के महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले व आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने इस सब के पीछे अडानी कनेक्शन को जोड़ दिया तथा गहन जांच व गिरफ्तारी की मांग कर दी। शिवसेना उद्धव ठाकरे ग्रुप के नेता संजय राउत ने तो इस सब के पीछे इशारे इशारे में भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक राजनीति की बात भी कर दी। यह सब तो राजनेताओं के वार प्रतिवार हैं लेकिन बड़ी बात यह है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े पायदान चुनाव के अंदर नोट तंत्र की पिछले काफी समय से बड़ी भूमिका सामने आती रही है। हर चुनाव में राजनीतिक दल एक दूसरे पर मतदाताओं को लुभाने के लिए शराब, पैसे, घरेलू उपयोग की वस्तुएं कपड़े और यहां तक की गहन बांटे जाने का भी आरोप लगाते रहे हैं। इतना ही नहीं लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में तो नोट के बदले वोट का घिनौना स्वरूप भी सामने आ चुका है जबकि लगभग तीन दशक पहले संसद के अंदर नोटों की गड्डियां लहराई गई थी। जरूरी है कि चुनाव आयोग अपने स्वरूप को कायम रखते हुए तथा निष्पक्षता को कायम रखते हुए चुनाव को धनबल व बाहुबल से मुक्त रखने का हर संभव प्रयास करें ताकि लोकतंत्र की सुंदरता बरकरार रहे।

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