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हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता

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कांतिलाल मांडोत
शिक्षा मनुष्य के जीवन में नई चमक ला लेती है। मानव की सोई हुई शक्ति को जगाने वाली शिक्षा ही है। शिक्षण का सही लक्ष्य मानव बनाने का है।जिस शिक्षा में मानव में मानवता जागृत न हो अथवा पशुता के संस्कार समाप्त न हो, उस शिक्षा का कोई महत्व नहीं है। वर्तमान में जो शिक्षा पद्धति है, वह समीचीन नहीं है। आज इस बात की आवश्यकता है कि शिक्षा का, ज्ञान का स्वरूप सम्यक हो एवं इसका उद्देश्य वातावरण में व्याप्त अराजकता के उन्मूलन के लिए हो। यह कटु सत्य है कि आज की शिक्षा प्रणाली सम्यक नहीं है। कहां हमारा ज्योतिर्मय अतीत एवं कहां अंधकारमय वर्तमान? यदि यही स्थिति रही तो भविष्य को धूमिल और अंधकारमय ही समझना चाहिए। जब हम अपने अतीत की और दृष्टिपात करते है तो मन गर्व से अभिभूत हो उठता है।
बड़ों के प्रति विनय रखो, छोटों को स्नेह दो, किसी का दिल मत दुखाओ, झूठ मत बोलो, हिंसा से बचो। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी का शोषण मत करो। इस शिक्षा के आधार पर व्यक्तित्व का निर्माण होता था और आज? आज की नाजुक स्थिति के सम्बंध में कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। हाथ कंगन को आरसी की जरूरत नहीं हुआ करती है। जो कुछ है, सब हमारे सामने है। कुत्ते, बिल्लियां और चूहों से प्रारम्भ होने वाली शिक्षा भला किस तरह से व्यक्ति के भीतर सुसंस्कारों के बीजारोपण कर रही है। सी ए टी कैट और डीओजी डॉग से आज के बालकों की प्राइमरी शिक्षा प्रारम्भ होती है। कुत्ते और बिल्ली को रटने वाले बालकों में कुत्ते और बिल्ली के ही तो  संस्कार आएंगे। पुराने जमाने में स्कूल में शिक्षकगण हमें ग की पहचान गणेश से करवाते थे। आज स्थिति ही बदल गई है। आज ग से गणेश की नहीं अपितु बालक को ग से गधे का बोध कराया जाता है।
पाश्चात्य शिक्षा का यह प्रभाव हुआ है कि  न हम पूरे अंग्रेज बन पाये और न पूरे भारतीय ही रह पाये। हमारा चित्त बन गया यूरोपियन और देह रह गई भारतीय। शरीर भारतीय है क्योंकि उसे आज तक गोरा नहीं बना पाए। संस्कार हीनता एव उच्छ्रंखलता के कारण आज परिवार, समाज और राष्ट्र का जो अंतर हृदय में है, वह अत्यंत आंदोलित एवं उद्देलित करता है। आज का जो दौर चल रहा है, वह अत्यंत भयावह है। विकृतियों की पुष्टि से जीवन मूल्यों का तेजी से  क्षरण हो रहा है। उसकी रोकथाम के लिए हम सबको आगे आना होगा। शिक्षा का उद्देश्य केवल पेटपूर्ति अथवा रोजगार मात्र नहीं है। शिक्षा वही है जो सुधार की समग्र दिशाओं को प्रशस्त करती है। हमें वही शिक्षा आत्मसात करनी है जिसे स्व पर हित सम्यक प्रकार से सम्पादित हो। शिक्षकों का दायित्व भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। शिक्षक का पद बहुत ही गरिमामय पद है। शिक्षा के नाम पर कभी बालक को कुसंस्कार देने की भूल न करें।
यह ऐसी भूल है जो चिरकाल तक कदम कदम पर शूल का कार्य करके चुभन देती है। वात्सलय की मूर्ति ममतामयी माँ के लिए मैया, अम्मा का सम्बोधन आज पुस्तकों में तो मिल सकता है, पर वर्तमान भारतीय बालक मम्मी कहने में गर्व का अनुभव करता है। आज की माँ भी मम्मी सम्बोधन सुनकर खुश होती है। हम अपने नाते रिश्तों को भी भूल गये। इससे अधिक शोचनीय स्थिति क्या होगी। हम किसी अन्य भाषा का ज्ञान अर्जित करें और वर्तमान में जो ज्ञान विज्ञान हमें मिल रहा है, उसे जरूर सीखें। जो सीखने योग्य है, उसे अवश्य सीखें, किन्तु सीखने का उद्देश्य यही है कि हम अपने धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को नष्ट करने की जरा सी भी भूल न करें।
मेरी दृष्टि में तो वही शिक्षा सार्थक एवं ग्राह्य है जिसके द्वारा सत्य, अहिंसा, आस्तेय, अपरिग्रह, इंद्रिय निग्रह, त्याग, परोपकार, दया, करुणा आदि गुणों का विकास हमारे भीतर हो। हम अपने अतीत के उन्नत जीवन और गौरवपूर्ण जीवनादर्शों को त्यागकर भोगवादी जीवन शैली को पुष्ट न करें। हमारी संवेदनशीलता, दया, करुणा परदु:खकातरता सुषुप्त नहीं होनी चाहिए। हमारा ध्येय व्यक्तिवाद और स्वार्थ साधना नहीं होना चाहिए। हमें अपनी राष्ट्रीय, सामाजिक, नैतिक अस्मिता की रक्षा के लिए शाश्वत जीवन मूल्यों का अभिरक्षण के प्रयास सतत करने चाहिए।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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