प्रियंका सौरभ
भारत में ‘एक देश, एक चुनाव’ आखिरी बार 1967 में हुआ था। पहली बार पूरे देश में एक साथ मतदान 1951 में हुआ था, जब जवाहर लाल नेहरू के समय में पहला आम चुनाव हुआ था। यह बहुत बड़ा काम था क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र था। इस चुनाव में 1,874 उम्मीदवार और 64 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियाँ, जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, 489 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव लड़ रही थीं। एक साथ चुनाव, जिसे ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के रूप में भी जाना जाता है, भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के प्रस्ताव को संदर्भित करता है। इस अवधारणा का उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना, संसाधनों को बचाना और बार-बार होने वाले चुनावों के कारण होने वाली बाधाओं को कम करना है। लोकसभा और राज्य के चुनाव एक साथ कराने के विभिन्न लाभ क्या हैं? एक साथ चुनाव कराना संविधान के संघीय चरित्र के विरुद्ध कैसे होगा? अन्य संसदीय लोकतंत्रों में इस सम्बंध में अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ क्या हैं?
एक साथ चुनाव कराने से वित्तीय और प्रशासनिक संसाधनों की एक महत्त्वपूर्ण राशि की बचत हो सकती है, साथ ही चुनाव प्रचार में लगने वाला समय भी बच सकता है। एक साथ चुनाव कराने से चुनाव संचालित नीति निर्माण का प्रभाव कम हो सकता है। इससे सरकारें अल्पकालिक राजनीतिक लाभों के बजाय दीर्घकालिक योजना और कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं। बार-बार चुनाव कराने से मतदाता थक सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप मतदान कम हो सकता है। चुनाव के दौरान लागू की जाने वाली आदर्श आचार संहिता विकास परियोजनाओं और नीतिगत निर्णयों में बाधा उत्पन्न कर सकती है। इसके कारण उम्मीदवारों द्वारा धन और बाहुबल का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। साथ ही चुनाव आयोग को भी इन चुनावों के संचालन के लिए सरकारी खजाने से बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ता है। इन चुनावों में मौजूदा मंत्रियों और विधायकों का समय बर्बाद होता है। उन्हें प्रचार के दौरान अपना ध्यान क्षेत्रीय चुनावों पर लगाना पड़ता है। इससे मीडिया रिपोर्टिंग का महत्त्वपूर्ण समय भी नष्ट हो जाता है, जो सार्वजनिक नीतियों की जांच करने के बजाय चुनाव जीतने वाले लोगों पर चर्चा करने में व्यस्त रहता है। कुल मिलाकर इन चुनावों में समय और धन की कुल हानि होती है।
यह सच है कि एक साथ चुनाव कराने से ऊपर बताई गई कमियों का असर कम हो सकता है, लेकिन यह भी कहा जाता है कि इससे सरकार की जवाबदेही भी कमजोर हो सकती है। राज्यों के चुनाव केंद्र सरकार द्वारा अपनी नीतियों के लिए लिटमस टेस्ट के रूप में लिए जाते हैं। विधायक और मंत्री प्रचार के दौरान लोगों के पास वोट मांगने जाते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपनी भावी योजनाओं की घोषणा करते हैं और साथ ही अपनी नीतियों का बचाव भी करते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान लोग आम तौर पर उनसे सवाल पूछते हैं। अलग-अलग चुनाव लोगों को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों को अलग तरीके से लेने की अनुमति देते हैं क्योंकि यह संघवाद का वास्तविक सार है। अलग-अलग चुनावों के ये सभी सकारात्मक पहलू एक साथ चुनाव होने से समाप्त हो सकते हैं और फिर विधायकों को पाँच साल में सिर्फ एक बार लोगों के पास जाना होगा। इससे विधायकों की जवाबदेही पर ज्यादा हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। एक साथ चुनाव होने से नागरिकों के लिए सरकार के प्रदर्शन से असंतोष व्यक्त करने के अवसरों की संख्या कम हो सकती है। राष्ट्रीय और राज्य चुनावों को मिलाने से स्थानीय चिंताओं की कीमत पर राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित हो सकता है।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
प्रियंका सौरभ