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डॉ. मनमोहन सिंह ने हमें सपनों का पीछा करना सिखाया

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संजय मग्गू
भारत में आर्थिक उदारीकरण के जनक और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 26 दिसंबर रात लगभग दस बजे अंतिम सांस ली। डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में आज मीडिया बहुत उदार हो गया है। उनकी शख्सीयत के बारे में बताया जा रहा है। यह वही मीडिया है जो  उनके शासनकाल में अनुदार था। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद तो उनके प्रति मीडिया और सत्ता दोनों जैसे क्रूर हो गए थे। तब उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी महीने में कहा था कि इतिहास उनके प्रति वर्तमान मीडिया की तुलना में ज्यादा उदार होगा। अगर मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व को दरकिनार करके सिर्फ एक ही बात पर चर्चा की जाए, तो डॉ. मनमोहन सिंह ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने सन 1991 में भारत को डिफाल्टर देश होने से बचाया था। सन 1990 में जब खाड़ी युद्ध शुरू हुआ तो पेट्रोलियम की कीमतें एकाएक बढ़ गई थीं। नतीजा यह हुआ कि भारत जो पेट्रोलियम दो अरब डॉलर में खरीदता था, उसकी कीमतें 5.7 अरब डॉलर हो गईं। उस पर दिक्कत यह थी कि भारत में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था। 1989 में बहुमत न मिलने पर कांग्रेस सरकार बनाने से इनकार कर चुकी थी और वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी, लेकिन वह भी मंडल-कमंडल की राजनीति में उलझ गए। महंगाई चरम पर थी। सरकारी खर्चे घटाने की नौबत आ गई। रुपये का बीस प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। बैंकों ने ब्याज की दरें बढ़ाईं। आईएमएफ ने 1,27 अरब डॉलर का कर्ज दिया। हालात फिर भी नहीं सुधरे। नतीजा यह हुआ कि भारत की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी। सन 1991 में वीपी सिंह के बाद प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर को 20 टन सोना गिरवी रखने पर मजबूर होना पड़ा। हालात इतने बदतर थे कि लगने लगा था कि भारत समय पर विदेशी कर्ज नहीं चुका पाएगा और डिफाल्टर घोषित हो जाएगा। लेकिन संयोग से 21 जून 1991 में पीवी नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री के रूप में देश की सत्ता संभाली, तो उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाकर सौंपी। मनमोहन सिंह ने इस मौके को लपक लिया और भारतीय अर्थव्यवस्था में ढांचागत कई सुधार किए। उन्होंने विदेशी पूंजी निवेश के रास्ते आसान कर दिया। इसका सकारात्मक परिणाम निकला। उन दिन तीन प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था देखते ही देखते कुछ साल में नौ प्रतिशत की दर से दौड़ने लगी। विदेशी कर्ज न केवल समय पर चुकाया गया, बल्कि मुद्रा भंडार में काफी डॉलर जमा हुए। उन्होंने अमेरिका से भारत के संबंधों को मधुर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो आज भी कायम है। अमेरिकी मीडिया आउटलेट ब्लूमर्ग ने उनके निधन पर लिखा है कि मनमोहन सिंह ने अपनी कार्यनीतियों से यह सिखाया है कि बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था में हम अपने सपनों का पीछा कर सकते हैं।  कामयाबी केवल विशेषाधिकार हासिल लोगों तक ही सीमित नहीं रह सकती है।

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