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बिहार की सियासी राजनीति उलटफेर के पेंच में फंसी रही, नतीजा पार्टियों को भोगना पड़ा

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देश में बिहार राज्य एक ऐसा राज्य है, जहां लगभग एक दशक में कई सियासी फेरबदल देखने को मिले हैं। रिश्ते जुड़े भी हैं और रिश्ते टूटे भी हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि अपने ही सहयोगी दल गायब भी हो जाते हैं यानी आज एक चुनाव साथ खड़े होकर लड़ते है तो वहीं पुराने साथी अगले चुनाव में आमने-सामने की लड़ाई लड़ने को तैयार हो जाते हैं। और यही कारण है कि इस राज्‍य में ना केवल साथी बल्कि परिणाम भी बदलते रहे हैं।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बिहार में यूपीए के बैनर तले राजद और कांग्रेस दोनों ही पार्टी ने चुनाव लड़ा। एनडीए, बीजेपी, लोजपा और सपा चुनावी मैदान में किस्मत आजमाने उतरी, तो उसी चुनाव में जदयू और भाजपा का गठबंधन रहा और त्रिकोणीय होने का सीधा फायदा एनडीए को मिल गया। साल 2015 के विधानसभा चुनाव में राज्य की सियासत में बहुत बड़ा उलटफेर देखने को मिला एक दूसरे के खिलाफ लगभग डेढ़ दशक तक सियासत करने वाले जदयू और राजद एक साथ खड़े हो गए। कांग्रेस भी उनके खेमे में शामिल हुई और इसका नतीजा यह निकला कि महागठबंधन को दो तिहाई सीटें मिल गई।

बिहार विधानसभा की 243 में से 178 सीटों के साथ इस गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की है, जबकि अगर एनडीए की बात की जाए तो लोजपा के साथ रालोसपा के अलावा जीतन राम मांझी के हम के रहते सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। क्योंकि एनडीए गठबंधन के बारे में 58 सीटें ही आई थी, साल 2020 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो फिर से समीकरण बदला एनडीए में जदयू राजद हम और वीआईपी एक साथ हो गए तो वहीं महागठबंधन में राजद कांग्रेस और वाम दल साथ आ गए। रालोसपा, बसपा और एआईएमआईएम तीसरा मोर्चा बनकर खड़ा हुआ और लोजपा अपना चौथा कोण बनाने की कोशिश में लगा रहा हालांकि तीसरा मोर्चा प्रभावी साबित नहीं हो पाया।

लोजपा जदयू को नुकसान पहुंचाने में सफल हो गई तो करीब तीन दर्जन सीटों पर उसने जदयू को नुकसान भी पहुंचा दिया। तो बिहार राज्य की राजनीति को उलटफेर की राजनीति कहना गलत नहीं होगा।

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