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शिक्षा का प्रसार : दावे और हक़ीक़त

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तनवीर जाफ़री
पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में यू पी ए के शासन के समय देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 क़ानून बनाया गया था जिसके तहत, 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा दिये जाने की व्यवस्था है। यह एक मौलिक अधिकार है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत, 6 से 14 साल के सभी बच्चों को यह अधिकार दिया गया है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के तहत भी इस अधिकार को सुनिश्चित किया गया है। सवाल कि क्या यह क़ानून धरातल लागू हो भी पा रहा ? क्या देश के अधिकांश ग़रीब परिवारों को इस क़ानून की जानकारी भी पहुंचाई जाती है ? क्या देश की सरकारें स्कूल्स को वह बुनियादी ढांचा मुहैय्या करा रही हैं जिसकी उन्हें ज़रुरत है ? ख़ासकर देश के सरकारी स्कूल्स का क्या हाल है इन को लेकर सरकार की क्या नीयत है ? वर्तमान सत्ताधारी प्रायः यह कहते भी सुनाई देते हैं कि युवा नौकरी मांगने वाले नहीं बल्कि स्वयं नौकरी देने योग्य बनें। यह बात सुनने में तो कानों को भाती ज़रूर हैं परन्तु यह हक़ीक़त से कोसों दूर है। कोई भी युवा जो ख़ुद नौकरी की तलाश में है उसे पहले तो शिक्षित व आर्थिक रूप से संपन्न होना ज़रूरी है। परन्तु इस समय देश के अधिकांश उत्तर भारतीय राज्यों से स्कूल्स के संबंध में जो समाचार आते हैं उन्हें देखकर तो सरकार के शिक्षा के प्रसार के दावों पर सवाल उठना लाज़मी है।
पिछले दिनों राजस्थान से एक ख़बर आई जिससे पता चला कि राजस्थान की भजनलाल सरकार द्वारा गत मात्र 10 दिनों के भीतर ही लगभग 500 सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया गया है। माध्यमिक शिक्षा निदेशक आशीष मोदी द्वारा गत 16 जनवरी को ही राज्य में 260 सरकारी स्कूल बंद होने का आदेश जारी किया गया। इसी तरह लगभग 10 दिन पहले भी 190 सरकारी स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया गया था। इसी राज्य में कई स्कूल ऐसे हैं, जहां एक भी बच्चे ने एडमिशन नहीं लिया है। वहीं निजी स्कूलों में छात्र-छात्राओं की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है। दूसरी ओर सरकारी स्कूल तमाम कथित प्रयासों के बाद भी लगातार बंद होते जा रहे हैं। इसी तरह यदि मध्य प्रदेश राज्य शिक्षा केंद्र द्वारा जारी वार्षिक आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि शैक्षणिक सत्र 2024-25 में 5500 सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां पहली कक्षा में एक भी छात्र भर्ती नहीं हुआ है। यानि इन स्कूलों में अब पहली कक्षा ज़ीरो ईयर घोषित की जाएगी। वहीं क़रीब 25 हज़ार स्कूल ऐसे हैं, जहां केवल एक या दो बच्चों के एडमिशन ही हुए हैं। प्रदेश में 11,345 स्कूलों में केवल 10 एडमिशन हुए। इसी तरह क़रीब 23 हज़ार स्कूल ऐसे हैं जहां मात्र तीन चार अथवा पांच बच्चों ने ही एडमिशन लिया है । प्राप्त समाचारों के अनुसार अब तक कुल मिलाकर लगभग 500 स्कूल्स में ताला पड़ चुका है। यदि अगले शैक्षणिक सत्र में भी यही हाल रहा तो प्रदेश के हज़ारों सरकारी स्कूल बंद हो जाएंगे। दरअसल इसे आम धारणा कहें या कड़वी सच्चाई कि केवल निजी स्कूलों में ही अच्छी शिक्षा दी जाती है जिसकी वजह से अधिकतर लोग अपने बच्चों का दाख़िला निजी स्कूलों में करवाना ही पसंद करते हैं। यही कारण है कि निजी स्कूल सिस्टम, सरकारी स्कूल सिस्टम पर पूरी तरह हावी हो गया है।
ज़ाहिर है राजस्थान व मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों के स्कूल्स में विद्यार्थियों की घटती संख्या पूरे समाज के लिये चिंता का विषय है। यहाँ प्रथम कक्षा से लेकर 12वीं कक्षा तक के क़रीब 23 लाख स्कूली छात्र ऐसे हैं, जो शैक्षणिक सत्र 2023-24 पूरा करने के बाद वापस स्कूल नहीं लौटे। आश्चर्य है कि इन बच्चों ने किसी अन्य विद्यालय में भी दाख़िला नहीं लिया है। ज़ाहिर है इतनी बड़ी तादाद में छात्रों का स्कूल छोड़ना अब स्कूल शिक्षा विभाग के लिए परेशानी का सबब बन गया है। अधिकारी इस बात को लेकर मंथन कर रहे हैं कि किस प्रकार छात्रों को वापस स्कूल बुलाया जाए। बताया जाता है कि मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की भी भारी कमी है। यहां 80 हज़ार से ज़्यादा अतिथि शिक्षकों को शिक्षण कार्य हेतु लगाया गया है। परन्तु इन अतिथि शिक्षकों के पास न तो बच्चों को पढ़ाने का पर्याप्त अनुभव है और न ही इन्हें विभागीय प्रशिक्षण हासिल है। मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति प्रायः इतनी बदहाल है कि अनेक स्कूल्स में आज भी पुस्तकालय, पीने का पानी, बिजली और हाथ थोने तक की बुनियादी सुविधाओं की कमी है। विगत पांच वर्षों में शिक्षकों की संख्या में तथा विद्यार्थियों की भर्ती दोनों में भारी कमी आई है और हज़ारों सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि प्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति को सुधारने में भाजपा सरकार बुरी तरह असफल हुई है और भाजपा के शिक्षा प्रसार के दावे भी महज़ एक जुमला साबित हो रहे हैं। अभिभावक अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर सरकारी स्कूलों में इंग्लिश मीडियम के टीचर ही नहीं हैं। वहीं, सरकारी स्कूल में बच्चों को दिया जाने वाला मध्यान्ह भोजन और निःशुल्क यूनीफ़ॉर्म व किताब वितरण बच्चों को स्कूल तक लाने में कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। दूसरी तरफ़ निजी स्कूलों में प्रायः बच्चों की सभी मूलभूत सुविधाओं का ख़याल रखा जाता है।
हाँ, दिल्ली के सरकारी स्कूल्स इस मामले में अपवाद ज़रूर कहे जा सकते हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूल देखने के लिये अनेक विदेशी मंत्री व विशिष्ट व्यक्ति तो आते ही रहते हैं स्वयं अमेरिकी शिक्षक भी दिल्ली का स्कूल मॉडल देखने आते रहे हैं। पिछले दिनों अमेरिका से आए 13 शिक्षकों के एक दल ने दिल्ली के सरकारी स्कूल्स में उपलब्ध सुविधाओं को देखा तथा इनसे बहुत प्रभावित हुये। ग़ौरतलब कि दिल्ली सरकार द्वारा ‘स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस’ की शुरुआत की गयी है। जहां पर प्रत्येक प्रतिभावान,हर वर्ग, हर परिवारिक पृष्ठभूमि, हर आर्थिक पृष्ठभूमि का छात्र बेहतर शिक्षा हासिल कर सकने में सक्षम है। सरकारी स्कूल्स में शिक्षा की बात तो दूर यदि आप ग़ौर करें तो धीरे धीरे बस अड्डों,रेलवे स्टेशन व अन्य सार्वजनिक स्थलों से भी आहिस्ता आहिस्ता बुक स्टाल्स समाप्त होते जा रहे हैं। हज़ारों सरकारी व निजी पुस्तकालय बंद हो चुके हैं तथा उनके भवनों का दूसरा उपयोग किया जा रहा है। इन हालात को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि सरकार के शिक्षा का प्रसार के दावे और हक़ीक़त में काफ़ी अंतर है।

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