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टीबी के खिलाफ अपनों से जंग हारता है मरीज

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साल 2015 की बात है, तब मैं छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था। इसी बीच मैं खांसी-बुखार से पीड़ित हो गया। जांच के बाद पता चला कि मुझे टीबी हो गई है। यह जानकारी फैलते ही सभी बच्चे मुझसे ट्यूशन पढ़ना छोड़ दिये। मेरे पिताजी कपड़े की दुकान चलाते थे। जैसे-जैसे ग्राहकों को पता चला कि इनका बेटा टीबी रोग से ग्रसित है, वे सभी दुकान में आना बंद कर दिये। धीरे-धीरे हमारी कमाई बंद होने लगी। एक यक्ष्मा (टीबी) मरीज से किस तरह गांव-घर के लोग दूरी बना लेते हैं, खुद से उनको काट देते हैं, ये मानसिक उत्पीड़न मैंने भी झेली है। शब्दों में बयां यह पीड़ा एक टीबी सर्वाइवर दिवाकर कुमार का है। बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित कुढ़नी ब्लॉक के बसौली गांव के रहने वाले दिवाकर आज एक स्वयंसेवी संगठन टीबी चैंपियन से जुड़कर राजयक्ष्मा के खिलाफ जंग में जुटे हैं। दिवाकर की तरह ही इस जिले में करीब 20 टीबी चैंपियंस टीबी मरीजों के बीच काम कर रहे हैं। जो उन्हें खुद की कहानी बताकर न केवल उनका हौसला बढ़ाते हैं बल्कि उन्हें इस बीमारी से लड़ने के लिए जागरूक करते हैं।

इन्हीं टीबी चैंपियंस में एक आरती कुमारी भी हैं। जो रीच संस्था के जिला समन्वयक के रूप में टीबी के विरुद्ध लड़ाई में कमर कस कर लगी हैं। आरती की कहानी भी तमाम टीबी मरीजों की अंतहीन पीड़ा की कारुणिक अभिव्यक्ति है। आरती का ससुराल मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड स्थित केशोपुर गांव में है। शादी के कुछ दिनों बाद उसे पता चला कि उसका पति टीबी का मरीज है। पति के संसर्ग में रहकर वह भी इस बीमारी से ग्रसित हो गयी थी। परिवार वालों ने इन दोनों से दूरी बना ली थी। आरती की मां को छोड़कर सभी रिश्तेदारों ने इनसे मुंह मोड़ लिया था।  ऐसे में स्थानीय जनप्रतिनिधियों, निजी चिकित्सकों के साथ-साथ आम लोगों को भी आगे आकर उनकी पीड़ा समझनी होगी, तभी हम इस बीमारी के खिलाफ जंग जीत सकते हैं।  दिवाकर और आरती की तरह ही लगभग सभी टीबी मरीजों को इसी प्रकार मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। दिवाकर कहते हैं कि टीबी आज लाइलाज बीमारी नहीं रही। सही समय पर पूरा इलाज होने पर मरीज पूर्ण स्वस्थ हो जाता है, लेकिन अफसोस कि बात है कि उनके घर-परिवार के लोगों, रिश्तेदार-मित्रों और समाज के लोगों का व्यवहार उनके साथ अमानवीय हो जाता है, जो उसे भीतर तक आघात करता है।

टीबी मरीजों के प्रति सामाजिक धारणाएं, अंधविश्वास व नजरिए में बदलाव लाना बहुत जरूरी है। यह संक्रामक बीमारी, जिसे तपेदिक रोग भी कहते हैं, अक्सर मेहनतकश मजदूरों, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को ही होता है या फिर घनी आबादी में रहने वाले लोगों को। निर्धन लोग पैसे के अभाव में पौष्टिक आहार नहीं ले पाते हैं, जिसके कारण उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी होती है। यही कारण है कि उनके शरीर पर बैक्टीरिया अधिक प्रभावी हो जाते हैं।

जिला यक्ष्मा केंद्र, मुजफ्फरपुर में इलाज कराने पहुंचे साहेबगंज प्रखंड के सेमरा मनाईन गांव के 21 वर्षीय मो। मुन्ना उन अभागे लोगों में शामिल हैं, जो पिछले कई महीनों से इस बीमारी के कारण मानसिक रूप से सामाजिक भेदभाव झेलने को मजबूर हैं। मो। मुन्ना के साथ यक्ष्मा केंद्र आये उसके बहनोई मो। नसीब ने बताया कि जानकारी के अभाव में अबतक 50 हजार से एक लाख रुपए तक खर्च हो चुके हैं। मुजफ्फरपुर मेडिकल कॉलेज से लेकर आइजीआइएमएस, पटना तक की दौड़ डेढ़-दो साल से लगा रहे हैं। प्राइवेट नर्सिंग होम में भी दो बार नौ-नौ महीने के अंतराल पर इलाज चला लेकिन ठीक नहीं हुआ।

यदि शुरू में ही सरकारी जिला यक्ष्मा केंद्र में आ जाते तो यह जल्दी ठीक हो जाता। मो। नसीब बताते हैं कि मुन्ना मोतीपुर में मीट की दुकान चलाता था। जब से बीमार पड़ा है, कमाई बंद हो गयी है। पत्नी और एक बेटा के साथ वह भयंकर आर्थिक अभाव में जी रहा है। भोजन के भी लाले पड़ गये हैं। ऐसे में उसे पौष्टिक आहार कहां से मिलेगा? बहुत सारा कर्ज भी हो गया है। कई मरीजों के परिजनों ने बताया कि यहां के प्राइवेट नर्सिंग होम वाले लोगों को बरगला कर मरीजों की स्थिति को और अधिक खराब कर देते हैं। ज्ञात हो कि मुजफ्फरपुर शहर का जूरन छपरा इलाका मेडिकल हब के रूप में विख्यात है। यहां सैकड़ों की संख्या में नर्सिंग होम और प्राइवेट क्लीनिक चल रहे हैं, जिनमें सरकारी डॉक्टर भी प्रैक्टिस करते हैं।

डॉ. संतोष सारंग

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