तनवीर जाफ़री
इन दिनों कांग्रेस पार्टी के नेता,पूर्व केंद्रीय मंत्री व तिरुवनंतपुरम से कांग्रेस पार्टी के सांसद शशि थरूर को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म है। शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र की नौकरी छोड़कर 2009 में कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे। उसके बाद वे लगातार चार बार केरल की तिरुवनंतपुरम सीट से लोकसभा सांसद निर्वाचित होते रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के मलयालम पॉडकास्ट से बात चीत के दौरान यह कह दिया की यदि कांग्रेस पार्टी को उनकी सेवाओं की ज़रूरत नहीं है तो उनके पास ‘विकल्प’ हैं। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि “अगर पार्टी उनका इस्तेमाल करना चाहती है तो वे पार्टी के लिए उपलब्ध रहेंगे। अन्यथा मेरे पास करने के लिए मेरी चीज़ें हैं। आपको नहीं सोचना चाहिए कि मेरे पास दूसरे विकल्प नहीं हैं।’ उन्होंने कहा कि “मेरे पास मेरी किताबें, भाषण, और पूरी दुनिया से बातचीत करने के लिए निमंत्रण हैं। ” थरूर के इस बयान से इन अटकलों को बल मिलना स्वाभाविक था कि क्या अब थरूर भी कांग्रेस को अलविदा कह सकते हैं।
इस ख़बर के साथ ही मीडिया में इस बात को लेकर भी अटकलें लगाई जाने लगीं कि यदि थरूर कांग्रेस पार्टी छोड़ते हैं तो क्या वे भी भारतीय जनता पार्टी की शरण में जायेंगे ? ख़ासकर पूर्व में उनके द्वारा भाजपा सरकार की कुछ नीतियों की तारीफ़ किये जाने से इन क़यासों को अधिक बल मिला। जैसे कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे के समय राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से उनकी मुलाक़ात की प्रशंसा की। उन्होंने मोदी के अमेरिका दौरे को काफ़ी अच्छा बताया। इसी तरह थरूर ने एफ़-35 लड़ाकू विमान को ख़रीदने में भारत की दिलचस्पी की तारीफ़ यह कहकर की कि ये विमान काफ़ी क़ीमती है। जबकि उन्हीं की पार्टी के नेता व कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने भारत सरकार द्वारा इस विमान को ख़रीदने में दिलचस्पी की आलोचना की। सुरजेवाला का कहना था, कि जिस F 35 को एलन मस्क ‘कबाड़’ बता चुके हैं उसे नरेंद्र मोदी ख़रीदने पर क्यों तुले हुए हैं। इसी तरह थरूर ने सोशल मीडिया एक्स पर केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और ब्रिटेन के व्यापार मंत्री जोनाथन रेनल्ड्स के साथ एक सेल्फ़ी पोस्ट करते हुये लिखा था कि “लंबे समय से रुकी हुई एफ़टीए वार्ता फिर से शुरू हो गई है, जो स्वागत योग्य है। ” बेशक सरकार के प्रति इस तरह के अप्रत्याशित वक्तव्य भाजपा के प्रति थरूर के सकारात्मक होने का संकेत दे रहे थे। परन्तु जब थरूर से भाजपा में शामिल होने की अटकलों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वयं को एक ‘क्लासिक उदारवादी’ बताते हुये कहा कि – मैं सांप्रदायिकता का विरोध करता हूं और आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक न्याय में विश्वास करता हूं। उन्होंने कहा, ‘ हर पार्टी का अपना विश्वास और इतिहास होता है। अगर आप किसी दूसरी पार्टी के विश्वास को नहीं अपना सकते तो उसके साथ जुड़ना सही नहीं है। मुझे नहीं लगता कि यह सही है। ” वैसे भी जिस तरह ’50 करोड़ की गर्ल फ़्रेंड ‘ कहकर शशि थरूर को लेकर अपमान जनक टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने सार्वजनिक भाषण में की गयी थी उसे देखकर भी नहीं लगता कि थरूर जैसा बुद्धिजीवी व संवेदनशील व्यक्ति कभी भाजपा में भी शामिल होगा।
परन्तु इन्हीं ख़बरों के बीच एक बार फिर इस बात पर भी बहस छिड़ गयी है कि क्या राजनैतिक दलों में बुद्धिजीवियों की कोई महत्वपूर्ण भूमिका भी है ? यदि थरूर के ही राज्य केरल में पिछले चुनावों के दौरान देखें तो भारत के एक प्रख्यात सिविल इंजीनियर, दिल्ली मेट्रो के निदेशक व पद्म श्री तथा पद्म विभूषण जैसे अति प्रतिष्ठित सम्मानों के हासिल करने वाले ई श्रीधरन जिन्हें भारत के ‘मेट्रो मैन’ के रूप में भी जाना जाता है,को भाजपा द्वारा केरल का मुख्यमंत्री प्रचारित किया गया था। यह और बात है कि ई श्रीधरन स्वयं अपना चुनाव भी नहीं जीत सके। परन्तु क्या कोई जानता है कि आज ई श्रीधरन भाजपा में क्या भूमिका निभा रहे हैं ? एक श्रीधरन ही नहीं भाजपा में ही लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर यशवंत सिन्हा व अरुण शौरी जैसे अनेक नेताओं का जो हश्र भाजपा में हुआ और हो रहा है वह किसी से छुपा नहीं है। क्या उनकी क़ाबलियत के अनुसार उनके व्यक्तित्व का इस्तेमाल किया गया ? हाँ यदि एस जय शंकर,अश्वनी वैष्णव और हरदीप पुरी जैसे गिने चुने लोगों को ज़िम्मेदारियाँ दी भी गयी हैं तो वे भी कितने स्वतंत्र हैं किसी से छुपा नहीं है। हाँ सत्ता प्रमुख, पूर्व नौकरशाह होने के नाते उनसे किसी तरह की “ना ” की उम्मीद तो कर ही नहीं सकते क्यों उन्होंने अपनी पूरी सेवा के दौरान केवल ‘यस मिनिस्टर ‘ ही तो कहा है ?
कमोबेश अधिकांश राजनैतिक दलों में यही स्थिति है। जहाँ पार्टी प्रमुखों को या आला कमान को बुद्धिजीवी,सलाह देने वाला,अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुये शीर्ष नेताओं को कोई नेक सलाह देने वाला नेता नहीं बल्कि ऐसा व्यक्ति चाहिये जो उनके प्रति पूरी तरह वफ़ादार हो और हर सही व ग़लत बात में आला कमान की हाँ में हाँ मिलाने की ‘सलाहियत ‘ रखता हो। हाँ, इन्हीं राजनैतिक दलों में कई ऐसे अवसरवादी प्रवृति के ‘समझदार ‘ नेता भी मिल जायेंगे जो केवल अपने सुखद राजनैतिक भविष्य के कारण सभी परिस्थितियों में गुज़ारा करने में भी संतुष्ट रहते हैं। क्योंकि कभी इन्हें मंत्री बनाकर ख़ामोश कर दिया जाता है तो कभी राज्यपाल का पद नवाज़ कर सक्रिय राजनीति से दरकिनार कर दिया जाता है। चूँकि ऐसे नेता प्रायः अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव में होते हैं इसलिये ‘जो मिला उसी में संतोष ‘ के सिद्धांत पर समझौता करते हुये अपना समय गुज़ार लेते हैं जबकि कुछ बग़ावती तेवर रखने या सच बोलने अथवा सवाल खड़ा करने वाले नेता ‘सतपाल मालिक ‘ बन जाते हैं। गोया भारतीय राजनीति में बुद्धिमान होना ज़्यादा ज़रूरी नहीं बल्कि ‘वफ़ादार ‘ होना ज़्यादा ज़रूरी है।
भारतीय राजनीति में बुद्धिमान नहीं ‘वफ़ादार ‘ होना ज़रूरी
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