संजय मग्गू
वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को समझने के लिए सबसे पहले अमेरिका, रूस, चीन और यूरोप के आपसी संबंधों को समझना होगा। जब से डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के दूसरी बार राष्ट्रपति बने हैं, वर्ल्ड आॅर्डर बदलता हुआ नजर आ रहा है। सबसे पहले तो यह समझना होगा कि ट्रंप की निगाहें पूरी तरह दुनिया भर के खनिज पर है। ग्रीन लैंड, कनाडा, मेक्सिको, यूक्रेन जैसे तमाम देश उनकी निगाह के दायरे में हैं। अब सवाल यह है कि रूस और अमेरिका एक दूसरे के निकट क्यों आ रहे हैं? तो इसका जवाब यह हो सकता है कि ट्रंप रूस को अमेरिका का प्रतिद्वंद्वी ही न मानते हों। यह भी हो सकता है कि रूस और चीन के बीच जो भी थोड़ा बहुत गैप है, उस जगह में खुद को रखकर वह रूस और चीन को निकट आने से रोक देना चाहते हों। रिचर्ड निक्सन के बाद ट्रंप अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति हैं, जो रूस को अपने साथ लेकर चलना चाहते हैं। रूस की जो वर्तमान स्थिति है, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि रूस अमेरिका का प्रतिद्वंद्वी नहीं है, बल्कि अगर कोई उसका प्रतिद्वंद्वी है, तो वह है चीन। चीनी प्रतिस्पर्धा से निपटने के लिए उन्हें खनिज पदार्थों के साथ-साथ रूस का भी साथ चाहिए। वहीं यूरोप को रूस फूटी आंखों नहीं सुहाता है। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से पहले नाटो के नाम पर ढेर सारा पैसा अमेरिका से यूरोपीय देशों को प्राप्त होता था। जिसका उपयोग वह अपने देश में विभिन्न योजनाओं को संचालित करने में करते थे। जब से ट्रंप आए हैं, उन्होंने नाटो को महत्व देना बंद कर दिया है। एक तरह से उन्होंने नाटो से संबंध तोड़ लिया है, यदि ऐसा कहा जाए, तो शायद गलत नहीं होगा। उन्होंने यूरोपीय देशों को मिलने वाला पैसा देने पर भी रोक लगा दी है। ऐसी स्थिति में अमेरिका से यूरोपीय देशों का नाराज होना सहज है। अति उत्साह में यूरोपीय देशों ने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेंस्की को अपने यहां बुलाकर उन्हें समर्थन देने की घोषणा तो कर दी, उन्हें भारी भरकम रकम और सैन्य सहायता देने की घोषणा तो कर दी, लेकिन वह अमेरिका के बिना यूक्रेन को रूस से बचा पाएंगे, इसमें संदेह है। यह भी संभव है कि असहाय यूरोपीय देश अपना रुख चीन की ओर करें। चीन को भी ऐसा होने पर एक नया बाजार मिलेगा। उसका माल उन देशों तक अबाध रूप से पहुंच सकेगा जहां पहुंचने में अभी तक थोड़ी बहुत बाधा थी। यूरोपीय देश किसी भी हालत में यह नहीं चाहते हैं कि रूस की स्थिति मजबूत हो। यह टकराहट कई दशकों से चली आ रही है। यूरोपीय देशों को पता नहीं क्यों लगता है कि उनके चीन के निकट जाने से रूस और चीन के संबंधों में गर्माहट कम होगी और वह चीन के साथ मिलकर एक सशक्त प्रतिरोध रूस का कर सकेंगे। यूरोपीय देशों की हालत यह है कि आर्थिक तौर पर वह अमेरिका के मुकाबले में कहीं नहीं ठहरते हैं। उन्हें अमेरिका का समर्थन हर हालत में चाहिए, लेकिन वह अमेरिका को रूस के साथ भी नहीं जाने देना चाहते हैं। ऐसे में चीन, अमेरिका, रूस और यूरोपीय यूनियन एक ऐसी समानांतर रेखाओं की तरह प्रतीत हो रहे हैं जो आपस में कहीं नहीं मिलते हैं।
अमेरिका के बिना यूक्रेन को बचा पाएंगे यूरोपीय देश?
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