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महिला को दया नहीं, चाहिए बराबरी का हक

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बेनजीर हाशमी
आठ मार्च यानी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। आठ मार्च को पूरी दुनिया में महिलाओं के लिए समर्पित किया गया है। सन 1909 को न्यूयार्कशहर में महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्रदान करने की मांग उठी थी। तब यह 28 फरवरी को मनाया गया था, वह भी अमेरिका के सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर। बाद में यह फरवरी के आखिरी इतवार को मनाया जाने लगा। एक देश के रूप में सबसे पहले इसे मान्यता दी थी रूस ने। उन दिनों रूस में जारशाही के खिलाफ वोल्शेविक पार्टी के नेता ब्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में संघर्ष चल रहा था। रूस के मजदूर किसान जारशाही के खिलाफ लामबंद होकर लड़ रहे थे। रोटी और कपड़े के लिए रूस की महिलाओं ने 23 फरवरी 1917 यानी महिला दिवस को (जूलियन कैलेंडर के अनुसार, ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार 8 मार्च) जारशाही के खिलाफ हड़ताल पर जाने का फैसला किया। पूरे सोवियत रूस में एक भी महिला काम पर नहीं गई। उसी दौरान वोल्शेविकों ने लेनिन के नेतृत्व में सबसे पहले जनक्रांति के जरिये जारशाही को उखाड़ फेंका और रूस की महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया। इसके बाद 7 नवबंर 1917 को समाजवादी क्रांति की। तभी से 8 मार्च को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा।
अंतर्राष्ट्रीय को मनाते हुए सौ साल से कहीं ज्यादा हो चुके हैं। तब से लेकर आज तक महिलाओं की दशा और दिशा में काफी बदलाव आया है। लेकिन यह सवाल आज भी अपनी जगह कायम है कि वास्तविक अर्थों में महिलाओं की स्थिति में कितना बदलाव आया? अगर समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका तलाशी जाए और उसका मूल्य निर्धारित किया जाए, तो वास्तव में वह पुरुषों से कहीं अधिक की अधिकारी हैं। एक महिला का समाज में योगदान पुरुषों से कहीं ज्यादा होता है। यदि हम भारतीय संदर्भ में ही देखें, तो महिला चाहे गृहणी हो या कामकाजी, घर, परिवार और समाज में उसका योगदान किसी पुरुष से कम नहीं है। वह परिवार में सबसे पहले सोकर उठती है और सबसे बाद में सोती है। उठते ही अपने से पहले परिवार के बारे में सोचती है। परिवार के सदस्यों को नाश्ता कराने से लेकर देर रात तक सिर्फ काम ही काम करती है। अगर वह कामकाजी महिला है, तो उसका बोझ और अधिक बढ़ जाता है।
एक व्यक्ति के रूप में महिला कतई नहीं चाहती है कि उसका अतिरिक्त सम्मान किया जाए, उसे देवी बनाकर पूजा जाए। उस पर किसी किस्म की दया की जाए, लेकिन वह इतना जरूर चाहती है कि उसे पुरुषों की ही तरह इंसान समझा जाए। उसे बराबरी का दर्जा चाहिए। जिस तरह एक पुरुष अपने बारे में, परिवार के बारे में और समाज के बारे में स्वतंत्र होकर फैसला ले लेता है, ठीक उसी प्रकार को भी फैसला लेने का हक होना चाहिए। कोई भी स्त्री किसी पुरुष चाहे वह पिता हो, पति हो, पुत्र हो या भाई हो, उसकी निजी संपत्ति नहीं है। वह भी हाड़ मांस की बनी एक जीवित प्राणी है।
उसे भी असमान व्यवहार होता देखकर दुख होता है, गुस्सा आता है, मन व्यथित हो जाता है। स्त्री की यह कैसी विवशता है कि वह घर के अंदर पुरुषों द्वारा किए गए व्यवहार को लेकर भीतर ही भीतर घुटती रहे और यदि वह प्रतिरोध करे, तो पुरुष और समाज उस पर कई तरह के लांक्षन लगाए। कार्य क्षेत्र में भी उसके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को पारिश्रमिक कम दिया जाता है। सच तो यह है कि महिलाओं को सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार तो दिए गए, लेकिन आर्थिक अधिकारों को प्रदान करने में कोताही बरती गई। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं को यदि उत्पादन के साधनों पर भी बराबर का अधिकार मिले, तो महिला दिवस मनाना सार्थक होगा।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)

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