संतन को कहा सीकरी सो काम। आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम। जैसे पद की रचना करने वाले अष्टछाप मार्गी कवियों में पहले कवि थे कुंभनदास। इन्होंने महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। कहते हैं कि एक बार सम्राट अकबर ने इन्हें सीकरी बुलाया और कुछ भेंट स्वीकार करने का अनुरोध किया। इस पर ही उन्होंने उपरोक्त पद कहकर दोबारा सीकरी न बुलाने को कहा। तब सीकरी राजधानी हुआ करती थी। एक बार की बात है। राजा मानसिंह वेश बदलकर कुंभनदास के घर उनके दर्शन को गए। दोनों लोग बैठकर चर्चा करने लगे। इसी बीच कुंभनदास ने अपनी बेटी को आवाज लगाते हुए कहा कि बेटी दर्पण ले आओ, तिलक लगा लूं।
बेटी दर्पण ला रही थी कि हाथ से छूटकर दर्पण गिरा और टूट गया। कुंभनदास ने कहा कि कोई बात नहीं। किसी बरतन में पानी भर लाओ। मैं तिलक लगा हूं। एक टूटे हुए घड़े में बेटी पानी भरकर लाई, तो उन्होंने स्थिर जल में अपना चेहरा देखकर तिलक लगा लिया। इस पर राजा मान सिंह बहुत प्रभावित हुए। दूसरे दिन वे राजसी वेषभूसा में कुंभनदास के घर पधारे और बोले, कविराज! आपकी सेवा में एक तुच्छ भेंट समर्पित है।
कृपया इसे स्वीकार करें। यह देखकर कुंभनदास ने कहा कि महाराज आप! अच्छा तो कल वेष बदलकर आप ही आए थे। हमें आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। मेरी एक विनती है। राजा मानसिंह ने कहा कि कहिए। तो कुंभनदास बोले कि आप जब चाहे तब हमसे मिलने आएं। लेकिन ये बेकार की वस्तुएं न लेकर आएं। आप खाली हाथ आएं आपका स्वागत है। हमारा घर छोटा सा है और इन बेकार की वस्तओं से ही यह भर जाएगा। कवि कुंभनदास की बातें सुनकर राजा मान सिंह मन ही मन बहुत लज्जित हुए और उन्हें प्रणाम करके वे अपने महल लौट गए। वे कुंभनदास के बहुत बड़े प्रशंसक हो गए।
अशोक मिश्र