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लचीला संविधान या यथास्थिवादी समाज

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अनिल धर्मदेश
‘संविधानों का जीवनकाल’ विषय पर शिकागो विश्वविद्यालय में प्रकाशित पत्र के अनुसार संविधानों का औसत जीवनकाल मात्र 17 वर्ष है। 50 वर्ष की अवधि के बाद महज 19 प्रतिशत संविधान ही जीवित रह पाते हैं। ऐसे में भारतीय संविधान की 75 वर्षों की दीर्घ यात्रा इसकी स्वीकार्यता और लचीलेपन का द्योतक तो है ही, साथ ही यह हम भारतीयों के मानसिक स्थायित्व और यथास्थितिवादी होने का भी परिचय देता है। समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की कला से सुसज्जित हमारा संविधान अनेक विरोधाभासों और कमियों से भी ग्रसित रहा है, जिसमें अपराध और अपराधी के प्रति कठोरता का अभाव और विरोधाभासी न्याय पर जनजागृति अत्यंत महत्वपूर्ण है। सदियों तक अंग्रेजों और मुगलों की यातना सह कर स्वाधीन हुए राष्ट्र में आक्रांता धर्मों के अनुयायियों के प्रति जिस सहिष्णुता का परिचय भारतीय संविधान में दिया गया है, ऐसा लचीलापन विश्व के किसी अन्य देश के संविधान में देखने को नहीं मिलता। उपासना की स्वतंत्रता से बहुत आगे बढ़कर यहां विदेशी और आक्रांता धर्मों को अपने मत के प्रचार-प्रसार तक कि अनुमति दी गयी है।
सर्वविदित है कि ऐसे स्वतंत्र प्रचार-प्रसार से भविष्य में एक देश की पूरी जनसांख्यिकी ही बदली जा सकती है। फिर धार्मिक भाईचारे के नाम पर विदेशी शक्तियों द्वारा किसी देश को पुन: अपने अधिपत्य में करने के भी अनेक उदाहरण हैं। एक-दो सदी में देश की डेमोग्राफी बदलने के बाद पाकिस्तान और अफगानिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक गणराज्य घोषित कर भारतीयों और विशेषकर हिन्दुओं से शत्रुता कर ली, जबकि पूर्व में यह भूभाग भी भारत का ही हिस्सा थे। यह भी विदित है कि आज इस्लामिक गणराज्य कहलाने वाले देशों का इतिहास रक्तरंजित धर्मपरिवर्तन से भरा पड़ा है। यातनाओं के अंतहीन दौर के बाद ईरान में पारसी धर्म समाप्त ही हो चुका है। डेमोग्राफिक बदलाव से इस्लामिक खलीफा की स्थापना का दुस्साहस कश्मीर में भी देखा गया, जिसे समाप्त कर सामान्य जनजीवन बहाल करने के लिए सरकार की हर कोशिश के बाद भी वहां मूल निवासी हिन्दुओं की घर वापसी संभव नहीं हो सकी है।
बांग्लादेश में हिन्दू बंगालियों पर आज वही मुस्लिम कट्टरपंथी हमलावर हैं जिनके साथ भाषायी आधार पर अलग देश बनाने की सहमति कुछ दशक पूर्व ही हिन्दू बंगालियों के एक धड़े ने दे दी थी।
एक तरफ उम्मत और उम्मा का वैश्विक धार्मिक भाईचारा है, जिसके तहत भारत, श्रीलंका और इंडोनेशिया के मुसलमान सीरिया और इराक में कथित धर्म रक्षा के लिए युद्ध लड़ रहे हैं। तो दूसरी तरफ भारत में सिर्फ धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसों को विशेष संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है। मदरसों से बढ़ते कट्टरपंथ और आतंकियों के संरक्षण व पोषण की लगातार मिलती सूचनाओं के बाद भी भारत में राज्यों की सरकारें करदाताओं के पैसे से इनका संचालन करा रही हैं। धार्मिक प्रसार के मामले में ईसाई मिशनरियाँ भी पीछे नहीं हैं। केरल, पूर्वोत्तर राज्यों और आदिवासी इलाकों में इनके व्यापक प्रसार को स्पष्ट देखा जा सकता है। पंजाब, छत्तीसगढ़ और झारखंड में रुपये देकर धर्म बदलवाने के मामले अक्सर सामने आते रहे हैं। इन सबके बावजूद भारतीय संविधान अल्पसंख्यक हित के नाम पर इस प्रकार के अनैतिक कृत्यों को लगातार परोक्ष व संरक्षण देता ही दिखता है। हालांकि इसके लिए सिर्फ संविधान को दोष देना समस्या के मूल कारण से मुंह चुराने जैसा है जबकि इसके लिए स्वयं इस देश का बहुसंख्यक समाज जिम्मेदार है। एक लोकतांत्रिक देश में सत्ता के लिए वोटबैंक पर निर्भर राजनीतिक दलों पर इस देश के बहुसंख्यक समाज ने राष्ट्रीय और दूरगामी विषयों को लेकर कभी दबाव बनाया ही नहीं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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