अशोक मिश्र
हमारे धर्म में ही नहीं, अन्य धर्मों में भी संन्यास की परंपरा रही है। संन्यासी बनने के लिए हर धर्म में अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं। कुछ बहुत कठिन हैं, तो कुछ कम कठिन। लेकिन संन्यासी बनने का बाद संन्यास का पालन करना, हर धर्म में व्यक्ति पर निर्भर करता है। संन्यास लेने के बाद संन्यासी बने रहना बहुत कठिन है। आपको बताएं, एक राजकुमारी थी। उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। जब वह विवाह के योग्य हुई, तो उसके पिता को उसके लायक कोई वर नहीं मिला, तो पिता चिंतित रहने लगे। उन्हें अपनी बेटी के वैराग्य भाव के बारे में पता था। एक दिन उन्होंने सोचा कि मैं अगर इसका विवाह किसी संन्यासी से करवा दूं, तो दोनों सुखी रहेंगे।
इसके बाद राजकुमारी का विवाह एक योग्य संन्यासी से कर दिया गया। एक दिन की बात है। राजकुमारी कुटिया की सफाई कर रही थी, तो उसे मिट्टी के एक पात्र में उसे दो सूखी रोटियां रखी मिली। उसने पति से पूछा कि यह क्या है? इस पर संन्यासी ने कहा कि कल जब कुछ नहीं मिलेगा, तो एक रोटी तुम और एक रोटी मैं खा लूंगा। यह सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। उसने कहा कि आप संन्यासी होकर भी कल की चिंता करते हैं। चलिए मान लेते हैं कि कल कुछ नहीं मिला, तो भूखे रहकर भगवान का भजन करेंगे। हम उस दशा में भी मगन रहेंगे। यह सुनते ही संन्यासी बोला, सचमुच मैं संन्यासी होकर भी पूरी तरह संन्यासी नहीं बन पाया। तुम राजकुमारी होकर भी संन्यास को अच्छी तरह समझती हो। एक संन्यासी को कल की चिंता करने की जरूरत ही नहीं है। संन्यासी को तो वैसे भी कामना रहित होना चाहिए। इसके बाद दोनों साधना में लीन हो गए। जाएगा।