कार्यस्थल, बाजार और घरों में महिलाओं की असुरक्षा आज का सबसे बड़ा मुद्दा है। कोलकाता में ट्रेनी महिला डॉक्टर की नृशंस हत्या से पहले बलात्कार के मामले को सुप्रीमकोर्ट ने स्वत: संज्ञान में लिया और घटना पर अपना आक्रोश जताया। सुप्रीमकोर्ट ने महिला डॉक्टरों की सुरक्षा व्यवस्था सुधारने के लिए पूर्व वाइस एडमिरल की अध्यक्षता में नौ डॉक्टर्स की एक टॉस्क फोर्स गठित की है जिसमें पांच सरकारी अधिकारी हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह पहल स्वागतयोग्य है। लेकिन यह सवाल अपनी जगह पर अब भी बरकरार है कि क्या इससे देश में बलात्कार और बलात्कार के बाद होने वाली हत्याओं को रोका जा सकता है? निर्भया कांड के एक साल बाद ही पूर्व सीजेआई की अध्यक्षता में पॉक्सो कानून बना। इतना ही नहीं, उसके एक साल बाद पॉश यानी प्रिवेंशन आॅफ सेक्सुअल हैरासमेंट आॅफ वुमन एट वर्कप्लेस जैसा सख्त कानून आया। फांसी की सजा का प्रावधान किया गया, लेकिन क्या रेप एंड मर्डर जैसी घटनाएं रुकीं? नहीं। मेरा अपना ख्याल है कि इन समस्याओं का हल सामाजिक क्षेत्र में खोजा जाना चाहिए। आप याद करें, आज से करीब तीस-चालीस साल पहले के ग्रामीण और शहरी समाज को। तब इंटरनेट नहीं था। मोबाइल भी नहीं था और इंटरनेट पर पॉर्न फिल्में भी उपलब्ध नहीं थीं। लेकिन क्या उन दिनों युवाओं में काम भावना भी नहीं थी? थी। लेकिन समाज ने उनकी कामभावनाओं के शमन की व्यवस्था भी समाज में ही करने की व्यवस्था कर दी थी। उन दिन वयस्क होते-होते लड़के और लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। संयुक्त परिवार होता था। यदि किसी युवक की अपनी सगी बहन नहीं होती थी, तो भी ताऊ-चाचा की बेटियां होती थीं। उस संयुक्त परिवार की लड़कियां अपने आचरण और क्रिया कलाप से अपने सगे और चेचेर भाइयों के मन में स्त्रियों के प्रति एक आदर भाव पैदा करती थीं। वह उन्हें नैतिक आधार पर स्त्रियों के प्रति जिम्मेदार बनाती थीं। गांव और मोहल्ले की लड़कियां अपने आसपास रहने वाले लड़कों से साथ रात-विरात कहीं भी आने-जाने में संकोच नहीं करती थीं क्योंकि सामाजिक रूप से सभी लोग एक दूसरे से इस तरह गुंफित होते थे कि मानो पूरा गांव या मोहल्ला एक वृहद परिवार हो। पूरे जिले में साल-छह महीने में यदि कोई ऐसी-वैसी घटना प्रकाश में आती थी, तो सामाजिक तौर पर इतनी निंदा होती थी कि मुजरिम समाज के लिए एक अछूत की तरह हो जाता था। घर वाले तक बहिष्कृत कर देते थे। लेकिन आज एकल या मिनी परिवारों में संबंधों का नैतिकता के आधार पर भी ह्रास हुआ है। चाचा-ताऊ की बेटियां भी बाहरी लगने लगी हैं। साल में एकाध बार मेल-मुलाकात होने से अपनत्व की भावना भी पैदा नहीं हो पाती है। मोबाइल ने अश्लीलता का एक महासागर खोलकर सामने रख दिया है। छोटे-छोटे बच्चे तक उसमें डूब उतरा रहे हैं। विवाह भी अब तीस से ऊपर की आयु में करने का चलन चल निकला है। ऐसी स्थिति में युवा तो छोड़िए, अधेड़ और बुजुर्ग हैवान बन रहे हैं।
संजय मग्गू