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वायुमंडल से कार्बन सोखें और भविष्य में उत्सर्जित न करें

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अशोक मिश्र
प्रकाश! क्या है प्रकाश? ऊर्जा का एक परिवर्तित रूप। एक विशेष किस्म की ऊर्जा ही प्रकाश है। और ऊर्जा किसमें? चेतन में, अचेतन (यानी जड़) में यानी समस्त पदार्थ में। इस प्रकृति में जो जितने भी पदार्थ या पदार्थ से निर्मित वस्तुएं हैं, सबमें ऊर्जा है। इस संपूर्ण प्रकृति के प्रत्येक अंग, उपांग में ऊर्जा मौजूद है। इसका एक निहितार्थ यह भी हुआ कि संपूर्ण प्रकृति में जो कुछ भी है, वह ऊजार्वान है। वह गतिमान है। इसी ऊर्जा के कारण के कारण प्रकृति में गति है। प्रकृति गति शून्य नहीं हो सकती है। प्रकृति का निर्माण भी पदार्थ और गति के संयोजन से हुआ है। गति और पदार्थ एक दूसरे से अलग भी नहीं हैं यानी गतिमय पदार्थ और पदार्थ में गति। यही द्वंद्वात्मकता है। एक दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं। स्वतंत्र होते हुए एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।
और अंधकार क्या है? प्रकाश का न होना अंधकार है। जब किसी पदार्थ में एक विशेष किस्म की ऊर्जा अनुपस्थित होती है, तब अंधकार होता है। अंधकार और प्रकाश पदार्थ के बिना नहीं हो सकते। अभौतिक नहीं हो सकते, अपदार्थिक नहीं हो सकते। प्रकृति विज्ञानी कहते हैं कि संपूर्ण प्रकृति की ऊर्जा का योग शून्य होता है। भौतिक विज्ञान भी यही कहता है। जब हमारे वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, इसका एक मतलब यह भी है कि इस प्रकृति में कहीं न कहीं किसी जगह पर उतना ही तापमान घट रहा है। क्योंकि इस संपूर्ण ब्रह्मांड में सभी तरह की ऊजार्एं नियत हैं, निश्चित हैं। न उन्हें घटाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है। यह हमारी पृथ्वी या ब्रह्मांड के किसी हिस्से में हो सकता है, पृथ्वी से बाहर भी हो सकता है।
यही प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है। इन दिनों अजरबैजान के बाकू शहर में दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्ष और वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर माथापच्ची कर रहे हैं। जब प्रकृति का द्रव्यमान और पदार्थ की मात्राएं नियत हैं, तो कार्बन उत्सर्जन को लेकर हायतौबा क्यों? अरे वायु में कार्बन बढ़ गया है और पृथ्वी पर मौजूद पदार्थों में कार्बन घट गया होगा। कार्बन की भी मात्रा तो नियत ही होगी न। जितना सौ, दो सौ साल पहले रहा होगा, उतना ही आज भी होगा। द्रव्य तो अविनाशी है। उसे न बनाया जा सकता है, न मिटाया जा सकता है। तो फिर? असल में प्रकृति में मौजूद कार्बन घटा है, न बढ़ा है। बस, संतुलन बिगड़ गया है। प्रकृति में संतुलन है। जो कार्बन जड़ पदार्थ में था, मिट्टी में था, अन्य तत्वों के के साथ था, उसे हमने हवा में मुक्त कर दिया है। समस्या यही है। इसका निदान भी यही है कि हमने अपने अविवेक पूर्ण कार्यों से प्रकृति में असंतुलन पैदा कर दिया है। इस असंतुलन को दूर कर दिया जाए, तो जलवायु परिवर्तन या पृथ्वी का गर्म होना रुक जाएगा। हवा में मौजूद कार्बन को सोख लिया जाए और भविष्य में कार्बन का उत्सर्जन न किया जाए। सीधी सी बात है।
अब बात करते हैं, अंधकार और प्रकाश की। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। इस प्रकृति में जितना महत्व प्रकाश का है, उतना ही महत्व अंधकार का भी है। अंधकार उतना भी बुरा नहीं होता है, जितना हम समझते हैं। अंधकार के बिना प्रकाश का कोई महत्व नहीं है। अगर अंधकार नहीं होता तो हमें प्रकाश का महत्व कैसे समझ में आता। संख्या एक का महत्व तभी तक है, जब तक संख्या दो मौजूद है। अभी एक पखवाड़ा पहले ही दीप पर्व गुजरा है। दीप पर्व यानी दीपावली का क्या संदेश है। यही न कि हम संपूर्ण जगत को प्रकाशित तो करें, लेकिन तिमिर के महत्व को भी न भूलें। भारतीय दार्शनिक जगत में अवतारवाद के सबसे पहले विरोधी महात्मा बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहकर प्रकाश और तिमिर को पारिभाषित किया। उन्होंने कहा कि अपना प्रकाश खुद बनो। इसका एक तात्पर्य यह भी हुआ कि अपने भीतर प्रकाश पैदा करो। भीतर तम है, प्रकाश की आवश्यकता है। तम किसका है? अज्ञानता का है, रूढ़ियों का है, अंध विश्वासों का है, सामाजिक, राजनीतिक वर्जनाओं का है। पाबंदियों का है। इन्हें दूर करने के लिए महात्मा बुद्ध कहते हैं कि अप्प दीपो भव। इसका एक दूसरा तात्पर्य यह हुआ कि अपना आदर्श खुद बनो।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

अशोक मिश्र

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